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________________ ५५२] आगम और विपिढक : एक अनुशीलन जाते हैं । श्रमण केशी भी उनका अभ्युत्थान, आसन-उपस्थापन मादि द्वारा स्वागत-सत्कार करते हैं। सूत्रकार द्वारा केशी एक जिज्ञासु प्राश्निक के रूप में चित्रित किये गये हैं और गौतम उत्तरदाता या समाधायक के रूप में । सम्भवतः इसका यह कारण हो सकता है कि गौतम इस काल के अन्तिम तीर्थकर की परम्परा से सम्बद्ध थे; अतः धर्म के अन्ततः स्वीकृत रूप के के साक्षात् वेत्ता थे। पार्श्व की परम्परा के साधुओं का सचैलकता को और अधिक झुकाव प्रतीत होता है, जब कि महावीर की परम्परा के साधुओं का अचेलकता की अोर । प्रस्तुत प्रसंग में सचैलक धर्म पावं द्वारा देशित तथा अचेलक धर्म महावीर द्वारा देशित कहा गया है, जो गहराई से विचारने योग्य है। जब जैन श्रमण संघ में सचेलकता-सवस्त्रता तथा अचेलकता-निर्वस्त्रता के रूप में दोनों प्रकार की परम्पराएं थीं, तब अचेलक धर्म के देशनाकार केवल महावीर ही क्यों कहे गये तथा सचेलक धर्म की देशना से केवल पार्श्व को ही क्यों सम्बद्ध किया गया ? भगवान् महावीर कुल-परम्परा से पापित्यिक थे। उनके माता-पिता पाश्वं परम्परा को मानते थे; अतः उनकी परम्परा पार्श्व की परम्परा से सर्वथा भिन्न हो, यह कैसे सम्भव हो सकता है। जैन परम्परा की ऐसी मान्यता है कि सभी तीर्थकर मूलतः एक ही तत्व-ज्ञान का उपदेश करते हैं, पर लोगों की जड़ता, प्रज्ञता, वक्रता,ऋजुता आदि में भेद से तत्वोपदेश की पद्धति, व्रत-विभाजन आदि में भेद प्रतीत होता है, जो आन्तरिक भेद नहीं है, केवल बाह्य कलेवर की भिन्नता है । सचेलक, अचेलक सम्बन्धी प्रश्न का समाधान भी गौतम ने इसी भावना से किया है । उसे उन्होंने लोगों की पहचान में उपयोगी, जीवन-यात्रा के निर्वाह में सहयोगी आदि कहकर समाहित करने का प्रयत्न किया है और अन्ततः यह कहकर इस प्रश्न को समाप्त कर दिया है कि वास्तव में साधुत्व ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र पर टिका है । उत्तराध्ययनकार ने गणधर गौतम के मुख से उक्त प्रश्न का समाधान तो कराया है, पर यह पूरा समझ में नहीं आता । प्रश्न कुछ असमाहित-सा प्रतीत होता है । यदि जैन आम्नाय में पहले से ही जिन-कल्प एवं स्थविर-कल्प के रूप में निर्वस्त्रसवस्त्र मुनि-परम्परा चली आ रही थी तो पार्श्व की परम्परा के मुनियों को, जो सवस्त्र थे, महावीर के निर्वस्त्र मुनियों को देख विचिकित्सा क्यों होती ? वही बात महावीर के मुनियों के लिए है । उन्हें पार्श्व के सवस्त्र मुनियों को देख अन्यथा भाव क्यों होता है ? ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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