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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृतं और उसका वामय [५५१ "लोगों के प्रत्यय-पहचान के लिए, संयम-यात्रा-संयत जीवन के निर्वाह के हेतु, ज्ञान आदि के ग्रहण के लिए लोक में वेष का प्रयोजन है। वास्तव में भगवान पार्श्व तथा भगवान् महावीर- दोनों तीर्थंकरों का उद्बोधन यही है कि ज्ञान, दर्शन तथा चारिन ही मोक्ष के यथार्थ साधन हैं । (श्रमण केशीकुमार द्वारा कृतज्ञता-ज्ञापन) गौतम ! आप धन्य हैं । मेरा संशय निमूल हो गया । मन और............. ... |" विमर्श : समीक्षा उत्तराध्ययन के इस प्रकरण से कई तथ्य प्रकाश में आते हैं। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय में पाव-परम्परा विद्यमान थी। पाश्व-परम्परा के श्रमण महावीर के श्रमण-समुदाय से भिन्न समुदाय के रूप में विचरण करते थे। श्रमण केशीकुमार का ससंघ श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में तथा गौतम का श्रावस्ती के कोष्ठक उद्यान में टिकना इसका द्योतक है। - दोनों परम्पराओं के श्रमणों में धर्म के मौलिक सिद्धान्तों की दृष्टि से कोई व्यक्त मतभेद जैसी स्थिति नहीं थी, पर दोनों अपने को वेष, व्रत-विधान आदि को लेकर पृथक मानते थे। इस पार्थक्य का लोक-मानस पर कम प्रभाव नहीं था। जब श्रमण केशी तथा गौतम की शास्त्र-चर्चा का प्रसंग उपस्थित होता है तो सहस्रों मनुष्य सुनने, देखने के लिए उपस्थित हो जाते हैं । जहां श्रद्धावान् लोगों को जिज्ञासा थी, वहां औरों को कुतूहल तथा उत्सुकता थी कि देखें क्या होता है । यह सब था, फिर भी दोनों परम्पराओं के श्रमणों में परस्पर सद्भावना एवं सहृदयता थी। पूर्ववर्ती तीर्थकर की परम्परा से सम्बद्ध होने के नाते श्रमण केशीकुमार के प्रति गौतम का बहुमान एवं आदर-भाव था; अतः वे स्वयं चलाकर तिन्दुक उद्यान में उनके स्थान पर १. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविह-विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ॥ अह भवे पइन्ना उ, मोक्खसब्भूयसाहणा। नाणं च सणं चेव, चरित्त चेव निच्छए । साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा! -वही, २३.३२-३४ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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