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३३० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन
[खण्ड : २ काल में ही निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। आय सुधर्मा को दीर्घायु और साथ-ही-साथ भावी आचार्य जान वे निर्वाण से पूर्व अपने-अपने गण उन्हें सम्भलाते जाते थे।
दो गणधर-गौतम और सुधर्मा भगवान महावीर के निर्धाण के अनन्तर विद्यमान रहे । भगवान महावीर के निर्वाण के दिन गणधर गौतम को कैवल्य प्राप्त हो गया; अतः भगवान् महावीर के श्रमण-संघ के अधिनायक के रूप में कार्य करना आयं सुधर्मा ने अंगीकार किया। उस समय आर्य सुधर्मा की आयु अससी वर्ष की थी। पर, उनका धर्मोत्साह अपरिसीम था तथा धर्म-प्रभावना व जन-जागरण के पावन अभियान में वे अनवरत प्रयत्नशील थे। भगवान् महाबोर के मिर्वाण के अनन्तर वे बीस वर्ष तक सदेह विद्यमान रहे। इन बीस वर्षों में उनके प्रारम्भ के बारह वर्ष छद्मस्थता के और अन्तिम आठ वर्ष सर्वज्ञता के थे।
आयं सुधर्मा की अस ज्ञावस्था का कार्य-काल भी बड़ा महत्व का था। उत्तर भारत के अनेक ग्रामों, नगरों, जनपदों में उन्होंने पर्यटन किया, जन-जन को अध्यात्म से अनुप्राणित किया। जम्बू जैसे सुयोग्य मुमुक्ष जन उनसे प्रनजित हुए। आर्य सुधर्मा का विराट व्यक्तित्व
आयं सुधर्मा एक बार अपने विहार-क्रम के बीच चम्पा नगरी पधारे। यह बिहार के भागलपुरा नगर के समीप था। गायधम्मकहाओ नामक षष्ठ अंग का प्रारम्भ इसी ( आयं सुधर्मा के चम्पा-आगमन के ) प्रसंग से होता है। वहां आयं सुधर्मा के कतिपय विशेषणों का उल्लेख है, जो उनके विराट एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के द्योतक हैं।
आर्य
पहला विशेषण आयं है। आर्य शब्द अनेक दृष्टियों से अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्मे णाम थेरेजाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बल-रूव-विणय-णाण-दसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जिइ दिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियासामरणमयविष्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणपहाणे, एवं करण-चरणणिग्गह-णिच्छप-अज्जव-मद्दव-लाधव-खंति-गुत्ती-मुत्ती विज्जामंत-बंभचेर-वेय-णय - णियमसच्च-सोयगाण-दसण-चरित्तापहाणे, ओराले, घोरे, धोरत्रए, घोरतवस्सो, घोरबंभचेरवासो, उच्छूढसरीरे, सखित्तेविउलतेयलेसे, चौद्दसे पुवी चउणाणोवगए ....................... विहरह।
-ज्ञातृधर्मकथा, प्रथम अध्ययन
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