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________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३३१ रहा है। आगम-वाङमय में उसका विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। प्रज्ञापना-टीका में कहा गया है : आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणेरित्यार्यः अर्थात् जो हेय धर्मों से-त्याज्य कर्मों से दूर हट गये, जिन्होंने उनका परित्याग कर दिया, फलतः जो उपायग्रहण करने योग्य धर्मों से जुड़ गये, वे आर्य कहे जाते हैं। प्रज्ञापना में आर्य के विवेचन में क्षेत्र-आय; जाति-आयं, कुल-आय', कर्म-आय' शिल्पआय', भाषा-आय', ज्ञान-आय, दर्शन-आय तथा चारित्र-आय आदि भेदों पर प्रकाश डाला गया है। सुधर्मा के विश्लेषण के रूप में प्रयुक्त आय शब्द साधारणतया सात्विक, प्रशस्त या सद्गुण-सम्पन्न के अर्थ में आया है। जैसा कि कहा गया है : प्रमाद मिथ्यात्वकषायदोषा दाराद् गतः सद्गुणराशिमाप्तः । बुद्धः परेषां प्रतिबोधको य: तमाहुरार्य विबुधा गुणज्ञाः॥ जो प्रमाद-धर्म या आत्म-स्वभाव के प्रति अनुत्साह, मिथ्यात्व, कषाय आदि दोषों से रहित, अनेक उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, स्थय प्रतिबुद्ध तथा दूसरों को प्रतिबोध देने वाले हैं, उन्हें ज्ञानी और गुणी जन आय' नाम से सम्बोधित करते हैं। आगम-वाङमय में आय विशेषण प्राय: सभी महापुरुषों के नाम के पहले प्रयुक्त होता रहा है। स्थविर सुधर्मा का दूसरा विशेषण स्थविर है, जो आय की भांति प्रायः सभी उत्तम कोटि के श्रमणों के नाम के साथ प्रयोग में आता रहा है। यह विशेषण चारित्रिक दृढ़ता, स्थिरता और निश्चल भाव का द्योतक है। स्थविर स्वयं तो अविचल भाव से संयम-रत होते ही हैं, औरों को भी उसमें सुदृढ़ बनाये रखने के हेतु प्रयत्नशील रहते हैं। मानव में, जब तक वह पूर्णरूपेण विकास नहीं कर पाता, अनेक दुर्वलताए समय-समय पर उभरती रहती हैं। उनके कारण साधना-निरत व्यक्ति भी अपने स्वीकृत पथ से कभी-कभी विचलित होने लगते हैं। उस समय किसी प्रबल, प्रौढ़ एवं उदात्त व्यक्तित्व के धनी महान् श्रमण द्वारा दी गयी प्रेरणा उनके लिये डूबते को तिनके का सहारा सिद्ध होती है। यह कार्य स्थविर का है। १. प्रज्ञापना, पद १; स्थानांग, स्था० ४, उद्देशक २; दशवकालिक, अध्ययन ६, आचारांग, १.५.२, व्यवहार, उद्देशक १; वृहत्कल्प, १ २. प्रज्ञापनोपांगम्, पूर्वार्द्धम्, पद १, ३४-३५ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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