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________________ ३३२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ इसी गरिमा के कारण इसका आचाय', उपाध्याय जैसे पदों पर आसीन पुरुषों के लिये भी विशेषण के रूप में प्रयोग होता रहा है । प्रन जाति-सम्पन्न : कुल-सम्पन्न आय सुधर्मा का मातृ-पक्ष और पितृ-पक्ष उत्तम था, जो उनके जाति-सम्पन्न तथा कुल-सम्पन्न विशेषणों से प्रकट होता है। यहां कुल और जाति शब्द एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। जैसा कि कहा गया है : कुलं पेइयं माइया जाई अर्थात् पितृवंश कुल तथा मातृवंश जाति कहा जाता है। आगे चल कर इन दोनों शब्दों के अर्थ परिवर्तित हो गये, जिसे भाषा-वज्ञानिक दृष्टि से अर्थ-विस्तार कहा जा सकता है। ___ जो महान् और प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी होते हैं, उनमें सभी प्रकार की विशेषताए होती हैं। दैहिक सुष्ठता, दृढ़ता एवं सबलता भी उनमें होती है, पर, इन सबका उपयोग आत्म-परिष्कार तथा अन्तविजय में होता है। आर्य सुधर्मा में यह सब था। एक विशेष सबल, सुदृढ़ शरीर-संहनन के धारक होने के कारण वे दैहिक शक्ति-सम्पन्न थे। घोर तप एवं साधना-सम्बन्धी ऐसे अनेक उपक्रम हैं, जो अत्यन्त दृढ़ देह-संहनन या शारीरिक गठन के बिना सध नहीं पाते। विनय-लाघवादि सम्पन्न विशेषण-क्रम के मध्य कहा गया है कि सुधर्मा विनय, शान, दर्शन, चारित्र तथा लाघवसम्पन्न थे। लाघव शब्द लघु से बना है। लघु शब्द के दो अर्थ हैं-छोटा तथा हल्का । हल्कापन दो प्रकार का है-पादार्थिक और भावात्मक । पदार्थों या वस्तुओं की दृष्टि से एक जैन श्रमण होने के नाते आय सुधर्मा बहुत कम उपधि या उपकरण रखते थे; अतएव वे लघु या हल्के थे। भावात्मक दृष्टि से वे गवं, अहंकार या अभिमान का त्याग कर चुके थे; अत: हल्के थे। दोनों ही दृष्टियों से यह विशेषण उन पर लागू होता था। ओजस्वी : तेजस्वी : वर्चस्वी : यशस्वी आय सुधर्मा ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी थे। तप आदि के कारण व्यक्तित्व में जो एक प्रभावपूर्ण आभा निखर उठती है, उसे ओज शब्द से अभिहित किया जाता है । आन्तरिक और बाह्य तप से व्यक्ति में जो दीप्तता होती है, उसे तेज कहते हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से तेजस्वी का अर्थ तेजोलेश्या (विशेष यौगिक शक्तियां ) आदि से युक्त भी हो सकता है। लब्धियों या विशेष प्रकार की यौगिक अभिसिद्धियों द्वारा व्यक्ति में जो प्रभाव-प्रवणता उत्पन्न होती है, उसे वर्ष स्विता कहा गया है। वर्चस्वी के लिए मूल १. लघोभविः-लाघवम् ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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