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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०५ हैं। इस तथ्य का विशेषावश्यक भाष्यकार ने तथा आवश्यक नियुक्ति के विवरणकार प्राचार्य मलयगिरि ने बड़े स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है । সূঃীনা জা হননা নামা কর ?
प्रत्येक पदार्थ अस्तित्व-धर्मा है, वह अपने स्वरूप में अधिष्ठित है, अपने स्वरूप का प्रत्यायक है। उसके साथ संयोजित होने वाले अच्छे-बुरे विशेषण पर-सापेक्ष हैं। अर्थात् दूसरों-अपने भिन्न-भिन्न प्रयोक्ताओं या गृहीताओं की अपेक्षा से उसमें सम्यक् या असम्यक् का व्यवहार होता है। प्रयोक्ता या गृहीता द्वारा अपनी प्रास्था या विश्वास के अनुरूप प्रयोग होता है। यदि प्रयोक्ता का मानस विकृत है, उसकी आस्था विपरीत है, विचार दूषित हैं, तो वह अच्छे-से-अच्छे कथित प्रसंग का भी जघन्यतम उपयोग कर सकता है ; क्योंकि वह उसके यथार्थ स्वरूप का अंकन नहीं कर पाता । जिसे बुरा कहा जाता है, उसके गृहीता का विवेक उद्बुद्ध और आस्था सत्परायण है तो उसके द्वारा उसका जो उपयोग होता है, उससे अच्छाइयां ही फलित होती हैं; क्योंकि उसकी बुद्धि सद्ग्राहिणी है ।
जैन दर्शन का तत्व-चिन्तन इसी आदर्श पर प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि अंगप्रविष्ट श्रुत और अंगबाह्य श्रुत जैसे प्रार्ष वाङमय को मिथ्या श्रत तक कहने में उसको हिचकिचाहट नहीं होती, यदि वे मिथ्यात्वी द्वारा परिगृहीत हैं। वास्तविकता यह है, जिसका दर्शन-विश्वास मिथ्यात्व पर टिका है वह उसी के अनुरूप उसका उपयोग करेगा अर्थात् उसके द्वारा किया गया उपयोग मिथ्यात्व-संवलित होगा। उससे जीवन की पवित्रता नहीं सचेगी। मिथ्यात्व-ग्रस्त व्यक्ति के कार्य-कलाप प्रात्म-साधक न होकर अनात्म-पूरक होते हैं । इसीलिए सम्यक् श्रुत भी उसके लिए मिथ्या-श्रु त है। यही अपेक्षा सम्यक्दृष्टि द्वारा गृहीत मिथ्या-श्रु त के सम्बन्ध में होती हैं । सम्यक्त्वी के कार्य-कलाप
१. क) अंगारणंगपविट्ठ सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं । आसज्ज उ सामित्तं लोइय-लोउत्तरे भयरणा।
-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५२७ (ख) ........ सम्यक् श्रुतम् –अंगानंगप्रविष्टमाचारावश्यकादि, तथा मिथ्याश्रु तम्-पुराण
रामायणभारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक श्रुत-मितर वा, तथाहि-सम्यग्दृष्टौ सर्वमपि श्रुतं सम्यक् श्रुतम्, हेयोपादेयशास्त्राणां हेयोपादेयतया परिज्ञानात्, मिथ्यादृष्टौ सर्व मिथ्याश्रु तम्, विपर्ययात् ।।
- आवश्यकनियुक्ति, पृ० ४७, प्रका० आगमोदय समिति, बम्बई
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