________________
४०४ ]
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
४. नन्दी, ५. अनुयोगद्वार, ६. देवेन्द्रस्तव, ७ तन्दुलवैचारिक, ८. चन्द्रावेध्यक, ९. सूर्य प्रज्ञप्ति, १०. पोरिषीमण्डल, ११. मण्डल - प्रवेश, १२. विद्याचरण - विनिश्चय, १३. गरिविद्या, १४. ध्यान-विभक्ति, १५. मरण- विभक्ति १६. आत्म-विशुद्धि १७. वीतरागश्रुत, १८. संलेखना श्रुत, १९ विहार- कल्प, २०. चरणविधि, २१. श्रातुर- प्रत्याख्यान, २२. महाप्रत्याख्यान आदि । ये उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत हैं ।
कालिक श्रुत अनेक प्रकार का है : १. उत्तराध्ययन, २. दशाकल्प, ३. व्यवहार, ४. वृहत्कल्प, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. ऋषिभाषित ग्रन्थ, ८ जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, ९. द्वीपसागर - प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र- प्रज्ञप्ति, ११. क्षुल्लक विमान - प्रविभक्ति, १२. महाविमानप्रविभक्ति, १३. अंगचूलिका, १४. वर्गचूलिका, १५. विवाह - चूलिका, १६. अरुणोपपात, १७, वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १९. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. वेलंघरोपपात, २२. देवेन्द्रोपपात, २३. उत्थान - श्रुत, २४. समुत्थान- श्रुत, २५. नाग-परिज्ञा, २६, निरयावलिका, २७. कल्पिका, २८. कल्पावतंसिका, २९. पुष्पिका, ३० पुष्पचूला, ३१. वृष्णिदशा; इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ के समय में थे । संख्यात हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ बीच के बाईस तीर्थंकरों के समय तथा चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवान् महावीर के समय में थे । अथवा जिस तीर्थंकर के औत्पातिकी श्रादि चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने शिष्य थे, उनके उतने हजार ग्रन्थ थे । प्रत्येक बुद्ध भी उतने ही होते थे । यह ( उपर्युक्त ) कालिक, उत्कालिक श्रुत श्रंगबाह्य कहा जाता है ।
अंग-प्रविष्ट : अंग बाह्य : सम्यक्ता
जैन दर्शन का तत्व ज्ञान जहां सूक्ष्मता, गम्भीरता, विशदता आदि के लिए प्रसिद्ध है, वहां उदारता के लिए भी उसका विश्व - वाङ्गमय (विश्व दर्शन) में अनुपम स्थान है। वहां किसी वस्तु का महत्व केवल उसके नाम पर श्रधुत नहीं है, वह उसके यथावत् प्रयोग तथा फल पर टिका है । अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के सन्दर्भ में जिन शास्त्रों की चर्चा की गयी है, वे जैन परम्परा के मान्य ग्रन्थ हैं । उनके प्रति जैनों का बड़ा आदर है । इन ग्रन्थों की देयता और महनीयता इनको ग्रहरण करने वाले व्यक्तित्व पर अवस्थित है । यद्यपि ये शास्त्र अपने स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् श्रुत हैं, पर गृहीता की दृष्टि से इन पर इस प्रकार विचार करना होगा - यदि इनका गृहीता सम्यक्हष्टि सम्पन्न या सम्यक्त्वी है, तो ये शास्त्र उसके लिये सम्यक् श्रुत हैं और यदि इनका गृहीता मिथ्या-दृष्टिसम्पृक्तमिथ्यात्वी है, तो ये मान्य ग्रन्थ भी उसके लिए मिथ्या श्रुत की कोटि में चले जाते हैं । इतना ही नहीं, जो प्रजैन शास्त्र, जिन्हें सामान्यतः श्रसम्यक् ( मिथ्या ) श्रुत कहा जाता है, यदि सम्यक्त्वी द्वारा परिगृहीत होते हैं, तो वे उसके लिए सम्यक् श्रुत की कोटि में आ जाते
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org