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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०३ পলণী ঔষ বাং7 থাইখ। आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने भाष्य की इस गाथा का विश्लेषण करते हुए लिखा है : "गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्रुत अंगप्रविष्ट श्रुत कहा जाता है तथा भद्रबाहु स्वामी प्रादि स्थविर-वृद्ध आचार्यों द्वारा रचित आवश्यक-नियुक्ति प्रादिश्रुत अंगबाह्य श्रुत कहा जाता है। गणधर द्वारा तीन बार पूछे जाने पर तीर्थ कर द्वारा उद्गीर्ण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य मूलक त्रिपदी के आधार पर निष्पादित द्वादशांग श्रुत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा अर्थ विश्लेषण या प्रतिपादन के सन्दर्भ में निष्पन्न आवश्यक आदिश्रुत अंगबाह्य श्रुत कहा जाता है । ध्र व या नियत श्रुत अर्थात् सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य होने वाला द्वादशांग रूप श्रत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा जो सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य हो हो, ऐसा नहीं है, वह तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण रूप श्रुत अंगबाह्य श्रुत है । অাবা পণখাসার ব্ধী কথা ___ नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अंग-प्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रत की व्याख्या करते हुए लिखा है कि सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र, जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे प्राचारांगादि अंगप्रविष्ट श्रुत है। इसके अतिरिक्त अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा रचित श्रुत अंगबाह्य श्रुत है। ___ अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है : (१) सामायिक प्रादि छः प्रकार का आवश्यक तथा (२) तद्व्यतिरिक्त । आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है : (१) कालिक एवं (२) उत्कालिक । जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम प्रहर व अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जाता है, वह कालिक श्रुत है तथा जो काल-वेला को वजित कर सब समय पढ़ा जाता है, वह उत्कालिक श्रुत है, जो दशवकालिक आदि अनेक प्रकार का है। उनमें कतिपय अप्रसिद्ध ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं : १. कल्प-श्रुत, जो स्थविरादि कल्प का प्रतिपादन करता है। वह दो प्रकार का है-एक चुल्लकल्प श्रुत है, जो अल्प ग्रन्थ तथा अल्प अर्थ वाला है। दूसरा महाकल्प श्रुत है, जो- महाग्रन्थ और महा अर्थ वाला है। २. प्रज्ञापना, जो जीव आदि पदार्थों की प्ररूपणा करता है । ३. प्रमादाप्रमाद अध्ययन, जो प्रमाद-अप्रमाद के स्वरूप का भेद तथा विपाक का - ज्ञापन करता है। १. जिसके लिए काल-विशेष में पढ़े जाने की मियामकता नहीं है । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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