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________________ ४१२ [ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ बौद्ध पिटकों की रचना मगध में हुई। वहां से वे सिंहल गये, एक ऐसे राजपुत्र के साथ जो प्रवन्ती में पला-पुसा था। यद्यपि वह मगधराज अशोक का पुत्र था, पर, उसकी मातृभाषा मागधी न होकर प्रावन्ती होना अधिक सम्भावित है। फिर सिंहल में कुछ शताब्दियों के बाद वे लेख-बद्ध किये गये। वही संस्करण प्रायः अन्य त्रिपिटक-संस्करणों का प्रमुख आधार है। इससे तथा पीछे उल्लिखित कारणों से सुगमता से समझा जा सकता है कि पालि-त्रिपिटक के रूप में परिवर्तन व मिश्रण क्यों होता गया ? जैन आगमों की रचना जहां मगध और विदेह में हुई, वहां उनके संकलनार्थ वाचनाए मगध, शूरसेन-व्रजभूमि तथा सौराष्ट्र में हुई। अन्ततः उनका संकलन सौराष्ट्र में हुआ, उन मुनियों द्वारा जो परम्परया मूल पाठ को बनाये रखने के लिए सन्नद्ध थे। पूर्वीय प्राकृतों के क्षेत्र में पागम रचित हुए और पश्चिमी प्राकृतों (उस समय अपभ्रशों) के क्षेत्र में संकलित, सम्पादित तथा लिपि-बद्ध किये जाने में पिटकों की तरह स्थानिक दृष्टि से लम्बा व्यवधान नहीं था। इस व्यवधान का भी (जितना था) भाषात्मक दृष्टि से प्रभाव तो कुछ हुआ ही, पर कम । और भी कुछ ऐसे हेतु रहे हैं, जिनसे भाषा आदि की दृष्टि से भागम-वाङमय में कुछ सम्मिश्रण भी हुआ, पर, आगमों के साथ, जैसा उल्लेख किया गया है, कुछ ऐसी स्थितियां रहीं, जिससे सम्मिश्रण, परिवर्तन आदि का परिमाण पालित्रिपिटक की तुलना में बहुत कम रहा। इसी कारण बुद्ध और महावीर-कालीन भाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से प्राकृत-आगमों का पालि-त्रिपिटक की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व है। অপসাৰ নথা সৰাৰ प्रागम-वाङमय के प्रवहमान स्रोत को अनेक दृष्टियों से चर्चा की गयी । प्रणयन या प्रणेता की दृष्टि से इसे दो भागों में बांटा जा सकता है। १. अंग-प्रविष्ट तथा २. अंगबाह्य । आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अंग अर्थात् अंग प्रविष्ट तथा अनंग अर्थात् अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है : “गणधरकृत व स्थविरकृत, आदेशसृष्ट (अर्थात् तीर्थंकर प्ररूपित त्रिपदी-जनित) व उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत (अर्थात् विश्लेषण-प्रतिपादन जनित) ध्र व-नियत व चल-अनियत इन द्विविध विशेषताओं से युक्त वाङमय अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य नाम से अभिहित है। । गणधरकृत, आदेशजनित तथा ध्रव; ये विशेषण अंगप्रविष्ट से सम्बद्ध हैं तथा स्थविरकृत, उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत और चल, ये विशेषण अंग बाह्य के लिए हैं । १. गणहरंथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुवचलविसेसओ वा अंगारणंगेसु नारणतं ।। -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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