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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०१
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बुद्ध और महावीर के धर्म की परिस्थितियां भिन्न-भिन्न थीं। इतिहासजों के अनुसार बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका धर्म मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग का अवलम्बी होने के कारण दूर-दूर के प्रदेशों में फैल गया था। उनके संघ में दीक्षित भिक्षु भी अनेक प्रदेशों के, भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी थे। उनके कार्य-क्षेत्र, प्रचार-क्षेत्र भी बहुत दूर-दूर थे, जहां वे विहार करते थे। इसलिए यह बहुत सम्भावित था कि अपनी मातृभाषा की भिन्नता, अपने प्रचार-क्षेत्रों की भाषाओं की भिन्नता आदि के कारण बुद्ध-वाणी में, जिसका वे उपदेश करते थे, भाषा आदि की दृष्टि से अनिवार्यतः परिवर्तन, सम्मिश्रण आदि हों। यही कारण है कि बुद्ध के परिनिर्वाण को केवल चार ही मास बीत पाये थे कि भिक्षुत्रों को बुद्ध-वचन का संगान करना आवश्यक प्रतीत हुआ।
जैन धर्म भी भगवान् महावीर के काल में बहुत विस्तार पा चुका था, पर उतना नहीं, उतने प्रदेशों में नहीं, जितना बौद्ध धर्म ने पाया । इसका मुख्य कारण जैन धर्म के कठोर नियम, व्रत-पालन की कड़ी व्यवस्था तथा उत्कृष्ट संयम व तपमूलक साधना था, जिन्हें
आत्मसात् करना उतना सरल नहीं था। जैन धर्म में दीक्षित साधु भी अधिकाशतः विदेह, मगध, कौशल आदि समीपवर्ती प्रदेशों के ही अधिक थे, जिनकी भाषाओं में बहुत अधिक अन्तर नहीं था। उनका प्रचार-क्षेत्र भी उतना विशाल नहीं था, जितना बौद्धों का; अतः महावीर की वाणी अधिक विलम्ब से संकलित होने पर भी अपने सही रूप में अधिक सुरक्षित रह सकी, ऐसा अनुमान करना अयुक्तियुक्त नहीं।
समय-समय पर दुष्काल आदि के कारण प्राय: जैन श्रुत नष्ट हो गया था या श्रुतधर मुनि बहुत कम रह गये थे । वैसी स्थिति में आगमों का जो संकलन हुआ, उसमें उनका स्वरूप यथावत् कहां तक रह सकता था ? सब कुछ हुआ, फिर भी जैन आगम भाषात्मक दृष्टि से प्राचीनता लिये हुए हैं। उनमें अनेक ऐसे हैं, जिनमें महावीर और बुद्ध के काल की भाषा का स्पष्ट दर्शन मिल सकता है। इसका प्रधान कारण है, जैन श्रमणों की आगमों को केवल अर्थशः ही नहीं, बल्कि शब्दशः भी स्मृति में बनाये रखने की अत्यधिक जागरूकता। जैन शास्त्रों में उच्चारण सम्बन्धी नियमों का जो विवेचन है, उससे स्पष्ट है कि शाब्दिक दृष्टि से भी श्रुत की अपरिवर्त्यता की ओर बहुत ध्यान रखा गया। यद्यपि यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनमें परिवर्तन हुआ ही नहीं, वे ज्यों-के-त्यों हैं, पर, इतना अवश्य है कि प्राकृत (जैन) आगमों की भाषा पालि-पिटकों की अपेक्षा निश्चय ही अपने मूल स्वरूप को अधिक सुरक्षित रखे हुए है, जो इस सौर जैन श्रमणों के अत्यधिक सावधान तथा कृतप्रयत्न रहने का प्रमाण है।
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