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________________ ४०० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ चणियों आदि में संगृहीत किया गया। मूल में और टीकाओं में इस ओर संकेत किया गया है। जो कतिपय प्रकीर्णक केवल एक ही वाचना में प्राप्त थे, उन्हें ज्यों-का-त्यों रख लिया गया और प्रामाणिक स्वीकार कर लिया गया । पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं में संकलित वाङमय के अतिरिक्त जो प्रकरण-ग्रंथ विद्यमान थे, उन्हें भी संकलित किया गया। यह सारा वाङमय लिपिबद्ध किया गया। इस वाचना में यद्यपि संकलन, सम्पादन आदि सारा कार्य तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक शैली से हुआ, पर यह सब मुख्य आधार माथुरी वाचना को मानकर किया गया। आज जो अंगोपांगादि श्रृत-वाङ्मय उपलब्ध है, वह देवद्धिंगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न इस वाचना का संस्करणरूप है। बौद्ध संगोतियां : जैन वाचनाएं . ___ कैसा संयोग बना, बौद्ध पिटिकों की संकलना के हेतु जहां मुख्यतः तीन संगीतियां आयोजित होती हैं, जैन आगमों का संकलन कार्य अन्तत: तीन वाचनाओं में परिपूर्ण होता है। संगोटियों और वाचनाओं के काल-क्रम में बहुत अन्तर है। तीनों बौद्ध-संगीतियां बुद्ध परिनिर्वाण के अनन्तर केवल २३६ वर्षों में समाप्त हो जाती हैं, जब कि जैन वाचनाओं को अन्तिम सम्पन्नता महावीर के निर्वाण के ९८० या ६६३ वर्ष बाद में होती है। बौद्ध-पिटक सिंहल में वहां के राजा वट्टगामणि अभय के शासन काल में ई० पू० २६-१७ में ताड़पत्रों पर लिपि-बद्ध होते हैं। उस सम्बन्ध में संगीति भी आयोजित हुई, पर, ऐसा प्रतीत होता है कि पिटक जिस रूप में राजकुमार महेन्द्र के साथ सिंहल पहुंचे थे, उसमें कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। कथनमात्र के लिये राजकुमार महेन्द्र के लंकागमन और राजा वट्टग्रामणि अभय के समय में पिटक-लेखन के बीच दो संगीतियां और भी हुई थीं। बौद्ध-पिटक जैन आगमों से लगभग साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व अन्तिम रूप से संकलित तथा लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व लिपि-बद्ध कर लिये गये थे। काल-क्रम के इस अन्तर को देखते हुए स्वभावतः यह कल्पना की जा सकती है कि भाषात्मक दृष्टि से जितनी प्राचीनता और प्रामाणिकता पालि-त्रिपिटक में है, वैसी जैन आगमों में कैसे हो सकती है ? बौद्ध-सगीतियों का क्रम बुद्ध-परिनिर्वाण के अनन्तर बहुत शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाता है । यहां तक कि पहली संगीति का आयोजन तो बुद्ध के परिनिर्वाण के केवल चार मास पश्चात् हो हो गया था। इससे सहन ही यह अनुमान किया जा सकता है कि तब तक, बुद्ध ने जिस भाषा में, जिन शब्दों में उपदेश किया, उसकी यथावत्ता या मौलिकता अधिक रहनी चाहिए। १. 'वाचनान्तरे तु पुनः', 'नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' इत्यादि द्वारा संकेतित । २. विस्तार के लिए देखें, इसी पुस्तक का 'त्रिपिटक वाङमय' अध्याय । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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