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भाषा और साहित्य] आष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३९९ को सम्पन्नता के अनन्तर आचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि का परस्पर मिलना नहीं हो सका। इसलिये दोनों वाचनाओं में संकलित सूत्रों में यत्र-तत्र जो पाठ-भेद चल रहा था, उसका समाधान नहीं हो पाया और वह एक प्रकार से स्थायी बन गया। तृतीय वाचना
उपर्युक्त दोनों वाचनाओं के लगभग डेढ शताब्दी पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणानन्तर १८. वें या ९९३ वे वर्ष में वलभो में फिर उस युग के महान् आचार्य और विद्वान् देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में तोसरो वाचना' आयोजित हुई। इसे वलभी की दूसरी वाचना भो कहा जाता है।
श्रुत-स्रोत की सतत प्रवहणशीलता के अवरुद्ध होने की कुछ स्थितियां पैदा हुई, जिससे जैन संघ चिन्तित हुआ। स्थितियों का स्पष्ट रूप क्या था, कुछ नहीं कहा जा सकता। पर, जो भो हो, इससे यह प्रतीत होता है कि श्रुत के संरक्षण के हेतु जैन संघ विशेष चिन्तित तथा प्रयत्नशील था। पिछली डेढ़ शताब्दी के अन्तर्गत प्रतिफूल समय तथा परिस्थितियों के कारण श्रुत वाङमय का बहुत ह्वास हो चुका होगा, अनेक पाठान्तर तथा वाचना-भेद आदि का प्रचलन था ही; अतः श्रुत के पुनः संकलन और सम्पादन की आवश्यकता अनुभूत किया जाना स्वाभाविक था। उसी का परिणाम यह वाचना थी। पाठान्तरों, वाचना-भेदों का समन्वय, पाठ की एकरूपता का निर्धारण, अब तक असंकलित सामग्री का संकलन आदि इस वाचना के मुख्य लक्ष्य थे। सूत्र-पाठ के स्थिरीकरण या स्थायित्व के लिये यह सब अपेक्षित था। वस्तुतः यह बहुत महत्वपूर्ण वाचना थी। __ भारत के अनेक प्रदेशों से आगमज्ञ, स्मरण-शक्ति के धनी मुनिवृन्द आये। पिछली माथुरी और पालभी वाचना के पाठान्तों, वाचना-भेदों को सामने रखते हुए समन्वयात्मक दृष्टिकोण से विचार किया गया। समागत मुनियों में जिन-जिन को जैसा-जेसा पाठ स्मरण था, उससे तुलना की गयी। इस प्रकार बहुलांशतया एक समन्वित पाठ का निर्धारण किया जा सका। प्रयत्न करने पर भी जिन पाठान्तरों का समन्वय नहीं हो सका, उन्हें टीकाओं,
१. पिछलो दोनों वाचनाओं के साथ जिस प्रकार दुर्भिक्ष की घटना जुड़ी है, इस वाचना
के साथ भी वैसा ही है । समा चारी शतक में इस सम्बन्ध में उल्लेख है कि बारह वर्ष भयावह दुर्मिक्ष के कारण बहुत से साधु दिवंगत हो गये, बहुत-सा श्रुत विच्छिन्न हो गया, तब भव्य लोगों के उपकार तथा श्रुत को अभिव्यक्ति के हेतु श्रीसंघ के अनुरोध से देवढिगणी अमाश्रमण ने (९८० वीर निर्वाणान्द) दुष्काल में जो बच सके, उन सब साधुओं को बलमी में बुलाया। विच्छिन्न, अवशिष्ट, न्यून, अधिक, खण्डित, अखण्डित मागमालापक उनसे सुन बुखिपूर्वक अनुक्रम से उन्हें संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया।
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