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भाषा और साहित्य] आर्ष (अमागधी) प्राकृत और मागम वारमय बारहवां हरिकेशीय अध्ययन उतराहाहान का एक क्रान्तिकारी अध्याय है, जहां चाण्डालकुलोत्पन्न मुनि हरिकेशबल के तपःप्रभाव और साधना-निरत जीवन की गरिमा इतनी उत्कृष्टतया उपस्थापित है कि जाति, कुल आदि का मद, दाभ मौर पहुंकार स्वयमेव निस्तेज तथा निस्तथ्य हो जाते हैं ।
बाईसवां रथनेमीय अध्ययन प्रात्म-पराक्रम, ब्रह्म-प्रोज जागृत करने की पूरकता के साथ-साथ अनेक रष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। तीर्थकर अरिष्टनेमि की जीवन-झांकी, उनके द्वारा लौकिक एषणा और कामना का परित्याग, श्रमण रथनैमि का अन्तदौर्बल्य, वासना का उभार, राजीमती द्वारा उद्बोधन प्रभृति ऐसे रोमांचक प्रसंग हैं, जिनकी भावना मोर प्रज्ञा दोनों के प्रकर्ष की दृष्टि से कम गरिमा नहीं है।
- तेईसा केशिगौतमीय अध्ययन है, जो भगवान् पार्श्व की परम्परा के श्रमण महामुनि केशी तथा भगवान् महावीर के अनन्य अन्तेवासी गणधर गौतम के परस्पर मिलन, प्रश्नोतर-संवाद आदि बहुमूल्य सामग्री लिये हुए है । तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्च को परम्परा चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर की परम्परा में किस प्रकार समन्वित रूप में विलीन होती जा रही थी, प्रस्तुत अध्ययन इसका ज्वलन्त साक्ष्य है। चातुर्याम धर्म और पंचमहाव्रतों के तुलनात्मक परिशीलन की दृष्टि से भी यह अध्ययन पठनीय है।
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उत्तराध्ययन सूत्र पर व्याख्यात्मक साहित्य विपुल परिमाण में विद्यमान है । प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति लिखी। जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की । थारापद्रगच्छ से सम्बद्ध वादिवताल विरुदालंकृत शान्ति सूरि ने पाइय या शिष्यहिता नामक टीका की रचना की, जो उत्तराध्ययन-वृहद्-वृत्ति भी कहलाती है। शान्ति सूरि का स्वर्गवासईसवी सन् १०४० माना जाता है। इस टीका के आधार पर देवेन्द्रगणी ने, जो आगे चल कर नेमिचन्द्र सूरि के नाम से विख्यात हुए, सुखबोधा नामक टीका लिखी, जो सन् १०७३ में समाप्त हुई । उत्तराध्ययन पर टीकाएं लिखने वाले अनेक जैन विद्वान् हैं, जिनमें लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस तथा हर्षकूल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
___ पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस पर कार्य किया है। उदाहरणार्थ, प्रो. शन्टियर ने मूल पाठ अंग्रेजी प्रस्तावना सहित प्रस्तुत किया है। आगम-वाङमय के विख्यात अन्वेषक
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