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________________ ४७० ] आगम और aिfter : एक अनुशीलन [:.२. डा. जैकोबी, इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो प्रो. मैक्समूलर के सम्पादकत्व में Sacred Books of the East के पैंतालीसवें भाग में आक्सफोर्ड से सन् १८९५ में प्रकाशित हुआ । श्रावय (प्रावश्यक) नाम : सार्थकत अवश्य से आवश्यक शब्द बना है । श्रवश्य का अर्थ है, जिसे किये बिना बचाव नहीं, जो जरूर किया जाना चाहिए। इसके अनुसार श्रावश्यक का श्राशय श्रमण द्वारा करणीय उन भाव-1 व क्रियानुष्ठानों से है, जो श्रमरण-जीवन के निर्बंध तथा शुद्ध निर्वहण की दृष्टि से श्रावश्यक है । वे क्रियानुष्ठान संख्या में छः हैं; अतः इस सूत्र को षडावश्यक भी कहा जाता है । यह छः विभागों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दन, प्रतिमरण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का वर्णन है । सामायिक अन्तरतम में समभाव की अवतारणा सामायिक है । एतदर्थं साधक मानसिक, वाचिक तथा कायिक दृष्टि से कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से समग्र सावध - सपाप योगोंप्रवृत्तियों से पराङ्मुख होता है । प्रथम आवश्यक में इसी का वर्णन है । चतुर्विंशति-स्तव द्वितीय आवश्यक में लोक में धर्म का उद्योत करने वाले चौबीस तीर्थंकरों का बन्दन है, जिससे आत्मा में तदनुरूप दिव्यभाव का उद्र ेक होता है । वन्दन तीसरा आवश्यक वन्दन से सम्बद्ध है । शिष्य गुरु चरणों में स्थित होता है, उनसे क्षमा-याचना करता है, उनके संयमोपकरणभूत देह की सुख-पृच्छा करता है । प्रतिक्रम चौथे आवश्यक में प्रतिक्रमण का विवेचन है । प्रतिक्रमण का अर्थ बर्हिगामी जीवन से अन्तर्गामी जीवन में प्रत्यावृत्त होना है अर्थात् साधक यदि प्रमादवश शुभ योग से चलित Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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