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________________ मावा और साहित्य ] .भा (अमागधी) प्राकृत और गम बाङमय [ 1 होकर अशुभ योग को प्राप्त हो जाए, तो वह पुनः शुभयोग में संस्थित होता है । यरि उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में श्रमण-धर्म की विराधना हुई हो, किसी को कष्ट पहुंचाया गया हो, स्वाध्याय मादि में प्रमादाचरण हुआ हो, तो वह (अतिक्रमण करने वाला साधक) उनके लिए मिच्छामि दुक्कड़-मिथ्या मे दुष्कृतम्-ऐसी भावना से उद्भावित होता है, जिसका अभिप्राय जीवन को संयमानुकूल, पवित्र और सात्विक भावना से प्राप्यार यित बनाये रखना है। काल. पांचवां आवश्यक कायोत्सर्ग से सम्बद्ध है। कायोत्सर्ग का प्राशय है—देह-भाव का विसर्जन और आत्म-भाव का सर्जन। यह ध्यानात्मक स्थिति है, जिसमें साधक दैहिक चांचल्य और अस्थैर्य का वर्जन कर निश्चलता में स्थित रहना चाहता है। বাহত্বান छठे आवश्यक में सावध-सपाप कार्यों से निवृत्तता तथा प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि के प्रत्याख्यान की चर्चा है। व्याख्या-साहित्य प्राचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक पर नियुक्ति की रचना की। इस पर भाष्य भी रचा गया। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा अत्यन्त विस्तार और गम्भीरता के साथ विशेषावश्यकभाष्य की रचना की गयी, जो जैन साहित्य में निःसन्देह एक अद्भुत कृति है। जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने इस पर टीका लिखी, जो शिष्यहिता के नाम से विश्रु त है । इसमें आवश्यक के छः प्रकरणों का पैतीस अध्ययनों में सूक्ष्मतया विवेचन-विश्लेषण किया गया है । वहां प्रासंगिक रूप में प्राकृत की अनेक प्राचीन कथाएं भी दी गयी हैं । आचार्य मलयगिरि ने भी टीका की रचना की । माणिक्यशेखर सूरि द्वारा इसकी नियुक्ति पर दीपिका की रचना की गयी। तिलकाचार्य द्वारा इस पर लघुवृत्ति की रचना हुई। दसवेयालिय (दशवकालिक) नाभ : अन्वर्थकता यह नाम दश और वैकालिक; इन दो शब्दो के योग से इस नाम की निष्पत्ति है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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