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________________ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन सामान्यतः दश शब्द दश अध्ययनों का सूचक है और वकालिक का सम्बन्ध रचना, नि'. हण या उपदेश से है। विकाल का अर्थ सन्ध्या है। वैकालिक विकाल का विशेषण है। ऐसा माना जाता है कि सन्ध्या समय में अध्ययन किये जाने के कारण यह नाम प्रचलित हुप्रा । ऐसी भी मान्यता है कि दश विकालों या सन्ध्याओं में रचना, नि!' हण या उपदेश किया गया। उस कारण यह पशवकालिक कहा जाने लगा। इस वशवकालिक के रचनाकार या नि! हक प्राचार्य शय्यम्भव थे, जिन्होंने अपने पुत्र बाल मुनि मनक के लिए इसकी रचना की । अंगबाह्यगत उत्कालिक सूत्रों में दशवकालिक का प्रथम स्थान है। दश अध्ययनों तथा दो पूलिकाओं में यह सूत्र विभक्त है। दश अध्ययन संकलनात्मक हैं । चूलिकाएं स्वतन्त्र रचना प्रतीत होती हैं। चूलिकाओं के रचे जाने के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार वे आचार्य शय्यम्भवकृत ही होनी चाहिए । इतना सम्भावित हो सकता है, चूलिकाओं की रचना दश अध्ययनों के नि' हण के पश्चातू हुई हो । सूत्र और चूलिकाओं की भाषा इतनी विसदृश नहीं है कि उससे दो भिन्न रचयिताओं का सूचन हो। कुछ विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार चूलिकाएं किसी अन्य लेखक की रचनाएं हैं, जो दश अध्ययनों के साथ जोड़ दी गई। संकलन : माघार : पूर्व श्रुत प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति में किये गये उल्लेख के अनुसार दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन का आधार प्रात्म-प्रवाद-पूर्व, पंचम अध्ययन का आधार कर्म-प्रवाद-पूर्व, सप्तम अध्ययन का आधार सत्य-प्रवाद-पूर्व तथा अन्य अध्ययनों का आधार प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु है। হৈ অাঘা : অ অাসস श्रुतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव ने अनेकानेक प्रागमों का दोहन कर सार रूप में दशवकालिक को संग्रथित किया । दशवकालिक में वरिणत विषयों का यदि सूक्ष्मता से परीक्षण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि वे विविध आगम-ग्रन्थों से बहुत निकटतया संलग्न हैं । दशवकालिक के दूसरे अध्ययन का शीर्षक श्रामण्यपूर्वक है। उसमें श्रमण को कामराग या विषय-वासना से बचते रहने का उपदेश किया गया है । उस सन्दर्भ में रथनेमि और राजीमति का प्रसंग भी संक्षेप में संकेतित है। यह अध्ययन उत्तराध्ययन के बाईसवें रथोमीय अध्ययन के बहुत निकट है। उत्तराध्ययन में रथनेमि और राजीमति का इतिवृत्त अपेक्षाकृत विस्तार से वर्णित है, पर, दोनों की मूल ध्वनि एक ही है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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