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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [४७३
चतुर्थ अध्ययन का शीर्षक षड्जीवनिकाय है। इसमें षट्कायिक जीवों का संक्षेप में वर्णन करने के उपरान्त उमकी हिंसा के प्रत्याख्यान का प्रतिपादन है । इससे संलग्न प्रथम अहिंसा महाव्रत का विवेचन है। तदनन्तर पांच महावतों का वर्णन है। प्रारम्भ-समारम्भ से पाप-बन्ध का प्रतिपादन करते हुए उससे निवृत्त होने का सुन्दर चित्रण है । यह अध्ययन भाचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययम के उत्तरार्द्ध से तुलनीय है । इस अध्ययन के पूर्व भाग में भगवान् महावीर का जीवन-वृत्त विस्तार से उल्लिखित है तथा उत्तर भाग में भगवान् महावीर द्वारा गौतम आदि निर्ग्रन्थों को उपदिष्ट किये गये पांच महाव्रतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्-जीव-निकाय का विश्लेषण है। बशर्वकालिक के चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन आचारांग के इसी अध्ययन से हुआ हो, ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है।
पंचम अध्ययन का शीर्षक पिण्डषणा है। इसमें श्रमण की भिक्षा-चर्या के सन्दर्भ में . सभी पहलुओं पर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला गया है। भिक्षा के लिए किस प्रकार जाना, नहीं जाना, किस-किस स्थिति में भिक्षा लेना, किस-किस में नहीं लेना; इत्यादि का समीचीन विशद रूप में विवेचन किया गया है । इस अध्ययन की विषय-वस्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के प्रथम अध्ययन से आकलित प्रतीत होती है। उसकी संज्ञा भी पिण्डेषणा ही है।
सातवें अध्ययन का शीर्षक वाक्य-शुद्धि है। इसमें श्रमण द्वारा किस प्रकार की भाषा प्रयोज्य है, किस प्रकार की अप्रयोज्य; इस वर्णन के साथ-साथ संयमी के विनय और पवित्र आचार पर प्रकाश डाला गया है। जिस-जिस प्रकार के भाषा-प्रयोग पोर व्यवहार-चर्या का उल्लेख किया गया है, वह श्रमण के अनासक्त, निर्लिप्त, प्रमूच्छित, जागरूक तथा आत्म-लीन जीवन के विकास से सम्बद्ध है। आचारांग के द्वितीय श्र त-स्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम भाषा जात है। उसमें साधु द्वारा प्रयोग करने योग्य, न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है। दशवकालिक के उक्त अध्ययन में किसी अपेक्षा से इसकी अवतारण हुई हो, ऐसा अनुमेय है।
. विनय-समाधि नवम अध्ययन है । इसमें गुरु के प्रति शिष्य का व्यवहार सदा विनयपूर्ण रहे, इस पर सुन्दर रूप में प्रकाश डाला गया है । विनयपूर्ण व्यवहार के सुलाभ
और अविनय-पूर्ण व्यवहार के दुर्लाभ हृद्य उपमाओं द्वारा वरिणत किये गये हैं। यह अध्ययन उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन विनय-श्रुत से विशेष मिलता-जुलता है, जहां गुरु के प्रति शिष्य के विनयाचरण की उपादेयता और अविनयाचरण की वर्ण्यता का विवेचन है।
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