________________
६०२ ]
८. अन्तकृदृशा :
९. अनुत्तरौपपादिकदशा : पद संख्या ९२४४०००
१०. प्रश्न व्याकघण :
११. विपाक सूत्र :
१२. दृष्टिवाद :
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
पद संख्या २३२८०००
श्लोक संख्या ११८९३३९३९८८५२०००
अक्षर संख्या ३८०५८८६०७६३२३४०००
"
श्लोक संख्या ४७२२६१७४४१४६००० अक्षर-संख्या १५११२३७५८११६६७००० पद संख्या ९३१६०००
श्लोक संख्या ४७५१४०११३३८९४००० अक्षर-संख्या १५२३००८३६२८४६०८०००
पद संख्या १८४०००००
श्लोक - संख्या ९४००२७७०३५६००००० अक्षर संख्या ३००८०८८६५१३९२०००००
सारांश
अग - प्रविष्ट तथा अंग बाह्य ग्रन्थों के नाम, उपर्युक्त विवेचन आदि से यह असंदिग्ध रूप में प्रकट होता है कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर - दोनों परम्परानों द्वारा स्वीकृत वाङ् मय में काफी नैकटय व सादृश्य रहा है। दोनों वाङ् मय धाराओं के उद्गम स्रोत का ऐक्य भी इससे सिद्ध होता है ।
Jain Education International 2010_05
पद संख्या १०८६८५६००५
श्लोक संख्या ५५५२५८०१८७३९४२७१०७
अक्षर संख्या १७७६८२५६५९९६६१६६१६६७४४०
उदाहरणार्थ एक प्रसंग उपस्थित किया जाता है । धवला टीकाकार आचार्य वीरसेन ने आचारांग के विषय एवं कलेवर का वर्णन करते हुए मुनि आचार से सम्बद्ध जो निम्नांकित, दो गाथाएं उद्धृत की हैं :
कथं चरे कथं चिट्ठे, कधमासे कधं सए ।
कथं भुजेज्ज भासेज्ज, कधं पावं ण बज्झई ॥ ७० ॥
जदं चरे जदं चिट्ठे, जदमासे जदं सए ।
जदं भुजेज्ज भासेज्ज, एवं पावं ण बज्झई ॥ ७१ ॥ "
[ खण्ड २
१. षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १. पुस्तक १, पृ० ९९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org