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________________ भाषा और साहित्य ] पूर्वाद्ध के मध्य भाग तक माना जाता है । आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में तस्वार्थं का जो पाठ स्वीकार किया है, वही तस्वार्थ राजवार्तिक के रचयिता आचार्य श्रकलंक (ई० ७ वीं शती) तथा तत्वार्थ- श्लोकभाति के रचयिता श्राचार्य विद्यानन्द ( ई० ७७५-६४०) ने माना है । अन्यान्य दिगम्बर श्राचार्य तथा विद्वान् उसी पाठ को लेकर चले हैं। श्वेताम्बर के माध्य का पाठ स्वीकार करते हैं । अपनी-अपनी जर खिंचra तवायं पर लिखने वाले दिगम्बर विद्वानों ने प्रायः उमास्वाति ( उमा' स्वामी) को दिगम्बर सिद्ध करने का प्रयास किया है और तस्वार्थ पर लिखने वाले श्वेताम्बर विद्वानों का उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध करने का प्रयास रहा है । पाठ-स्वीकार में भिन्नता का संभवतः यह भी एक कारण हो सकता है । शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय मूलतः तस्वार्थ के सूत्र उभय- परम्परा -परक रहे हों. पर साम्प्रदायिक आग्रह के वातावरण में वह बात स्थिर नहीं रह सकी हो। अपनी-अपनी परम्पराओं से संगत पाठ दोनों सप्रदायों ने स्वीकार कर लिए हों, अपनी परम्परानों से असंगत पाठों को परिवर्तित, परिशोधित या परिष्कृत कर लिया गया हो । यदि तत्त्वार्थ सूत्र के गहन तल में जायें तो अधिक संगत यही प्रतीत होता है कि उमास्वाति एक ऐसे श्राचार्य रहे हों, जिन्होंने अपनी कृति – तत्वार्थं द्वारा दोनों परम्पराओं का समन्वित रूप प्रस्तुत करना चाहा हो । इस प्रकार की विचारधारा रखने वाले आचार्य के यदि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध होने का अनुमान किया जाता है तो वह असंभावकता की कोटि में नहीं जाता; अतः स्वर्गीय पं० प्रेमी को कल्पना तथा डा० उपाध्ये" के एतन्मुखी चिन्तन के परिपार्श्व में विद्वानों तथा १. सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना, पृ० ८८ २.. 3. [ ५८५ दिगम्बरों में इस नाम का भी प्रचलन है । The Sutras and Bhasya show some clear-cut differences with the Ardhamagadhi canon and Pujyapada is not very happy with the text of the Sutras in Onany places. That late Pt. Premi has given some valid reasons why Umasvati must have belonged to the Yapaniya Sangha......... —Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, vol. LV, Poona 1974, P. 20. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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