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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय nि हैं । लोहार्य या लोहाचार्य तक के अट्ठाईस आचार्य तथा ये पांच आचार्य और-कुल तेबीस प्राचार्यों का समय ६८३ वर्ष गिनाया है। उसमें काल के सम्बन्ध में यह विशेष भेद है। जैसा कि पहले सूचित किया गया है, अन्यत्र लोहार्य तक ही ६८३ वर्ष हो जाते हैं।
काल-सूचन के सन्दर्भ में उस पट्टावली की एक विशेषता यह है कि प्रत्येक प्राचार्य का पृथक्-पृथक् समय उल्लिखित किया गया है, जब कि तिलोयपण्णत्ति आदि में केवलिपरम्परा, श्रुत-केवलि-परम्परा, दशपूर्वधर-परम्परा, एकादशांधर-परम्परा तथा प्राचारांगधर-परम्परा, जो श्रुत के क्रमिक ह्रास पर आधृत श्रेणी-विभाजन है, में प्रत्येक श्रेणी का योगात्मक या सामूहिक काल दिया है। उदाहरणार्थ-जैसे पांच श्रुत-केवलियों का समय १०० वर्ष है, वहां किस-किस श्रुत-केवलि का कितना-कितना समय रहा, ऐसा कुछ नहीं है।
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तिलोयपण्णत्ती आदि में तीन केवलियों, पांच श्रुत-केवलियों तथा ग्यारह दशपूर्वधरों का समय क्रमशः ६२, १०० तथा १८३ वर्ष है। उस पट्टावली में भी वैसा ही है। इन उन्नीसों के समय का योग ६२+१०० - १८३ = ३४५ होता है, जो उस पट्टावली में उल्लिखित है । पर, एक-एक प्राचार्य का जो पृथक्-पृथक् समय दिया है , उसमें ग्यारह दशपूर्वधरों का काल, जो विशाखाचार्य १० वर्ष, प्रोष्ठिल १९ वर्ष, क्षत्रिय १७ वर्ष, जयसेन २१ वर्ष, नागसेन १८ वर्ष, सिद्धार्थ १७ वर्ष, घृतिषेण १८ वर्ष, विजय १३ वर्ष, बुद्धिलिंग २० वर्ष, देव १४ वर्ष तथा धर्मसेन १४ वर्ष = कुल १८१ वर्ष होता है । वह इनके सामूहिक काल, जो १८३ वर्ष बताया गया है, से मेल नहीं खाता । यहां पट्टावलिकार की कुछ भूल हुई है। किसी प्राचार्य के २ वर्ष छूट गये हैं। ___ इसके पश्चात् एकादशांगधारी पाते हैं । दोनों जगह वे संख्या में पांच-पांच हैं । तिलोय
बुद्धिलिंग, देव तथा धर्मसेन-इन ग्यारह दशपूर्वधरों का समय क्रमशः १०, १९, १७, २१, १८, १७, १८, २३, २०, १४ तथा १४ = कुल १८१ वर्ष, नक्षत्र, जयपाल, पांडव, ध्र वसेन तथा कंस-इन पांच एकादशांगधरों का समय क्रमशः १८, २०, ३९, १४ तथा ३२ = कुल १२३ वर्ष; सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु तथा लोहाचार्य-इन चार वश, नव व अष्ट अंगधरों का समय क्रमशः ६, १८, २३ तथा ५२ % कुल ९९ वर्ष और अर्हवलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि-इन पांच एकांगधरों का समय क्रमशः २८, २१, १९, ३० तथा २० = कुल ११८ वर्ष है।
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