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________________ ६५.] . आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (खण्ड । २ पणत्ति आदि में उन पांचों का समय २२० वर्ष है, जबकि प्राकृत-पट्टावली में उनका समय-नक्षत्र १८ वर्ष, जयपाल २० वर्ष, पांडव ३९ वर्ष, ध्र वसेन १४ वर्ष तथा कंस ३२ वर्ष = कुल १२३ वर्ष बतलाया गया है । ____ सत्पश्चात् अन्यत्र जहां चार पाचारांगधर पाते हैं, वहां उस पट्टावली में उन्हें दश, नव व अष्ट अंगधर कहा गया है । तिलोयपण्णत्ती आदि में इन चार का समय ११८ वर्ष कहा गया है, जब कि उस पट्टावली में सुभद्र ६ वर्ष, यशोभद्र १८ वर्ष, भद्रबाहु २३ वर्ष तथा लोहाचार्य ५२ वर्ष = कुल ९९ वर्ष होता है । पट्टावलिकार की यहां भी कुछ भूल रही है । क्योंकि वे इस प्रकार पृथक्-पृथक् काल-सूचन करके भी उसका योग ९७ वर्ष बतलाते हैं । ९७ से ही उनका आगे का ठीक मिलान बैठता है। यहां ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमादवश किसी आचार्य के समय में दो वर्ष अधिक जुड़ गये हैं। दश,नव एवं अष्ट अंगधारक के रूप में उल्लिखित इन चार आचार्यों के सम्बन्ध में ऐसा समझा जा सकता है-इनमें सुभद्र दशरंगधर रहे हों, यशोभद्र नव अंगधर रहे हों तथा भद्रबाहु, जिन्हें अन्यत्र यशोबाहु कहा गया है व लोहाचार्य या लोहार्य पाठ-आठ अंगों के धारक रहे हों। अन्यत्र पट्टानुक्रम में लोहार्य अन्तिम हैं, जहां इसमें लोहार्य के बाद अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि-ये पांच प्राचार्य और पाते हैं, जिनका समय अर्हद्बलि २८ वर्ष, माघनन्दि २१ वर्ष, धरसेन १९ वर्ष, पुष्पदन्त ३० वर्ष तथा भूतबलि २० वर्ष = कुल ११८ वर्ष है। इस प्रकार केवलि-काल ६२ वर्ष, श्रुत-केवलि-काल १०० वर्ष, चतुर्दश पूर्वधर-काल १८३ वर्ष, एकादशांगधर-काल १२३ वर्ष, दश-नव-अष्ट-गधर-काल ९७ वर्ष तथा एकांगधर-काल ११८ वर्ष = कुल ६८३ वर्ष होते हैं। এমী उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राकृत-पट्टावली में अन्यों से मुख्यतः तीन बातों में अन्तर है : पांच एकादशांगधर प्राचार्यों के काल-क्रम की भिन्नता, अन्यत्र जिन्हें आचारांगधर कहा गया है, उन्हें उक्त पट्टावली में दश,नव एवं अष्ट अगधर कहा जाना, उनका समय भी भिन्न बतलाया जाना तथा प्रबलि आदि पांच नये प्राचार्यों का समावेश । प्रायः सभी दिगम्बर-लेखक आचार्य-क्रम तथा उनके काल-क्रम के उसी रूप को लेकर बले हैं, जैसा तिलोयपण्णात्ति आदि में है, फिर इस पट्टावलिकार ने जो नया काल-क्रम दिया ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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