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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वामय [६५१ है, उसकी उपलब्धि उन्हें कहां से हुई ? सम्भव है, इस पट्टावलिकार को कोई ऐसी परम्परा या प्रमाण प्राप्त हुआ हो, जो दूसरों को अप्राप्त था, जिसके आधार पर उसने इसकी रचना की हो । इस पट्टावलिकार ने प्रत्येक आचार्य का जो पृथक्-पृथक् समय दिया है, वह महत्वपूर्ण है। किसी विशेष उल्लेख या प्रमाण के उपलब्ध हुए बिना वह इस प्रकार कैसे कर सकता था, जब कि यति वृषभ से लेकर इन्द्रनन्दि आदि किसी मे ऐसा नहीं किया है । एकादशांगधरों के काल में जो दोनों गणनाओं में भेद है, उसका पर्यालोचन करें तो इस पट्टावलिकार का उल्लेख अपेक्षाकृत अधिक संगत होता है। इसके अतिरिक्त सर्वत्र पांच प्राचार्यों का जो २२० वर्षों का समय वरिणत हुआ है, वह यदि सर्वत्र असंभव नहीं कहा जा सकता तो उसे अत्यन्त सम्भव मानना भी समुचित नहीं लगता । तिलोयपण्णत्ति आदि में एकादश-अगधर-परम्परा के पश्चात् एकाएक आचारांगधरों के रूप में एकांगधर-परम्परा आ जाती है अर्थात् दश अंगों का एक साथ लोप हो जाता है । प्रस्तुत पट्टावली में एकादश-अंगधरों के बाद दश-नव-अष्ट-अगधर-परम्परा आती है। उत्तरोत्तर हीयमान श्रत-परम्परा के सन्दर्भ में अग-लोप का यह क्रम अधिक युक्ति संगत प्रतीत होता है। अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समावेश और काल का अभेद अर्थात् ६८३ वर्ष का जो स्वीकृत काल-क्रम चला आ रहा है, उसी के अन्तर्गत इन पांच प्राचार्यों को जो ले लिया गया है, वहां कुछ विचारणीय है । एक समाना इस सन्दर्भ में एक सम्भावना यह हो सकती है, पट्टावलिकार स्यात् उस संघ या गण से सम्बद्ध रहा हो, जिसके अर्हद्बलि, माघनन्दि तथा धरसेन आदि थे । उसने अपनी परम्परा से सम्बद्ध उन प्राचीन प्राचार्यों के एकांगधरत्व रूप विशिष्ट ज्ञान के कारण यह सोचा हो कि पट्टानुक्रम में उनका समावेश किया जाना चाहिए । लोहार्य तक तो संघ-भेद नहीं था ; अतः तब तक का पट्टानुक्रम तो सर्व-सम्मत था ही । एक संघ के अन्तर्गत उपसंघों के रूप में जब विभाजन हो जाता है, तब स्थिति परिवर्तित हो जाती है अर्थात् सभी संघ अपनीअपनी परम्परा के पट्टधरों की ही गणना करते हैं । अस्तु, प्रस्तुत पट्टावलिकार ने इन पांच आचार्यों को प्राक्तन श्रुत-परम्परा की शृंखला में जोड़ने तथा कालिक सीमा वही बनाये रखने के हेतु पीछे के काल-क्रम में अपेक्षित परिवर्तन किया हो और उस सर्व-स्वीकृत ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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