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________________ ६५२] मागम और शिपिटक : एक मनुशीलन ६८३ वर्ष की समयावधि में इन पांचों आचार्यों को मिला दिया हो । पट्टावलिकार ने वहां सभी आचार्यों का पृथक्-पृथक् समय भी छांट दिया है, जिससे वह काल-गणना विशेष प्रभावक लगे। दूसरी सम्भावना जैन संघ के पृथक्-पृथक् संघों या गणों में विभक्त हो जाने से भिन्न-भिन्न संघों में जो विशिष्ट ज्ञानी हुए, उनके ज्ञान की गरिमा तो सर्वत्र समाहत थी, पर, सर्व-स्वीकृत पट्टानुक्रम में उन्हें गृहीत करना सम्भव नही था ; अतः लोहायं के बाद का पट्टानुक्रम सब संघों का अपना पृथक्-पृथक् होता गया । इसलिए यह भी संम्भव हो सकता है कि अर्हबलि, माघनन्दि, धरसेन जैसे विशिष्ट शान-सम्पन्न प्राचार्यों को, जो श्रुत-परम्परा पर आधृत पूर्वतन श्रेणी में आते थे, वहां नहीं गिना गया या जाना-बूझकर छोड़ दिया गया । हो सकता है, हीयमान-श्रु त-परम्परा की यह काल-गणना भूतबलि तक रही हो, वहीं तक ६८३ वर्ष का समय पूरा होता हो, पर, जब एक सर्वसम्मत पट्टानुक्रम का रूप बनाये रखना वांछित था, तब उन्हें कैसे लिया जाता, जो एक विशिष्ट संघ के नेतृत्व से सम्बद्ध थे। इसलिए इन सहित जो ६८३ वर्ष होते थे, उन्हें लोहायं तक के आचार्यों में बांट दिया हो । यह सब इसलिए किया गया हो कि एक पट्टानुक्रम तो ऐसा रहे, जिसकी प्रामाणिकता तथा सर्व-मान्यता पर कोई अंगुली तक न उठा सके । यह सम्भावना की तो जा सकता है, परन्तु कम समाधायक लगती है। क्योंकि एक मात्र इस प्राकृत-पट्टावली के अतिरिक्त और कहीं भी वैसी सूचना प्राप्त नहीं होती। इसलिए इस पट्टावली को ही अक्षरशः मान लिया जाए, ऐसा नहीं कहा जा सकता और न ऐसा ही कहा जा सकता है कि इस पट्टावली के रचयिता मात्र कल्पनाकार थे ; क्योंकि उसमें प्रकटित तथ्य सहसा मन को नाकृष्ट भी करते हैं। ____ इस सन्दर्भ में मनीषियों का अनुसन्धित्सापूर्ण प्रयत्न अपेक्षित है, जिससे अब तक अव्यक्त तथ्यों का उद्घाटन हो सके । ___ इस पट्टावली के अनुसार माघनन्दि तक वीर निवारण ६१४ वर्ष होते हैं । माघनन्दि के अनन्तर भूतबलि के काल तक ६९ वर्षों का समय रहता है, जिसे धरसेन, पुष्यदन्त और भूतबलि-इन तीनो में विभक्त किया गया है । इसके अनुसार धरसेन का आचार्य-काल वीर-निर्वाण ६१५ से ६३३ तक, पुष्पदन्त का प्राचार्य-काल वीर निर्वाण ६३४ से ६६३ तथा भूत बलि का आचार्य-काल वीर-निर्वाण ६६४ से ६८३ तक होता है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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