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आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन
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"उन्होंने श्रमरोचित आचार त्याग दिया। वे दीनता से भिक्षा लेने लगे । इच्छानुसार घरों में जा-जाकर, वहां बैठ-बैठकर भोजन करने लगे । 1 यों वर्तन करते हुए उनका कितनाक समय व्यतीत हो गया । दुर्भिक्ष मिटा, सुभिक्ष हुआ । तब आचार्य शान्ति ने संघ को ब्राह्वान किया । सब को कहा - " यह कुत्सित भाम्बार त्याग दें। इसकी निन्दा व ग करते हुए पश्चात्ताप -- प्रायश्चित करें और पुनः करें । " 2
मुनियों का शुद्ध चारित्र्य स्वीकार
"यह सुन श्राचार्य शान्ति का प्रथम प्रधान शिष्य बोला कि ग्राज इस प्रकार का दुर्धर -- प्रत्यन्त कठिन आचरण कौन निभा सकता है ? इसके अन्तर्गत उपवास, भोजन की मप्राप्ति, अन्यान्य दुःसह अन्तराय - विघ्न, एक स्थान, निर्वस्त्रत्व, शान्त भाव, ब्रह्मचर्यं भूमि-शयन, दो-दो महिनों के अन्तर से असह्य केश-लुचन तथा बाईस परिषह - हम सबको स्वीकार करना बहुत कठिन है। हम लोगों ने इस समय जैसा जो आचरण स्वीकार कर रखा है, वह इस लोक में सुखप्रद है । इस दुःषम काल में उसे नहीं छोड़ा जा
सकता "8
१. चत्तं रिसि- आयरणं गहिया भिक्खा य दीणवित्तौए । उवविसिय जाइऊणं भुत्त बसट्ठीसु इच्छाए ॥ ५९ ॥ २. एवं वट्ट ताणं कित्तिय कालम्मि चावि परियलिए ।
संजायं सुभिक्खं जंपइ ता संति आयरिओ ॥ ६० ॥ आवाहिऊण संघ भणियं छंडेह कुत्थियायरणं । frfar गरहिय गिण्हह पुणरवि चरियं मुणिदाणं ॥ ६१ ॥ ३. तं वयणं सोऊणं उत्त सोसेण तत्थ पढमेण । को सक्कइ धारेडं एवं अइ बुद्धरायरणं ॥ ६२ ॥ उववासोय अलाभो अण्णे दुस्सहाइ अंतरायाई । एकट्ठाणमचेल अज्जायणं बंभचेरं च ॥ ६३ ॥ भूमीसयणं लोच्चे बे बे मासेहि असहिणिज्जो हु । बावीस परिसहाई असहिणिज्जाइ निच्चं पि ॥ ६४ ॥ जं पुण संपइ गहियं एवं अम्हेहिं किंपि आयरणं । इह लोयसुवखयरणं ण छंडियो हु दुस्समे काले ॥ ६५ ॥
-भावसंग्रह
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