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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनो प्राकृत और उसका वाङमय . [५२३ इस पर प्राचार्य शान्ति ने कहा कि इस प्रकार के चरित्र-भ्रष्ट जनों का जीवन इस लोक में किस काम का । वह तो जिन-मार्ग का दूषण एवं कलंक है। जिनेन्द्र देव ने निम्रन्थप्रवचन-पार्हत्-दर्शन को परम श्रेष्ठ कहा है। उसे छोड़कर दूसरे मत का प्रवर्तन मिथ्यात्व "यह सब सुनकर प्राचार्य का प्रधान शिष्य रोष में आ गया। उसने एक लम्बा डण्डा लिया और स्थविर शान्ति आचार्य के मस्तक पर प्रहार किया। उसी चोट से स्थविर का देहान्त हो गया और वे एक व्यन्तर देव के रूप में उत्पन्न हुए।" "प्राचार्य शान्ति का वह (हत्यारा) प्रधान शिष्य संघ का अधिपति हो गया । वह वेताम्बर बन गया, जो प्रकट रूप में पाखण्ड है। बह इस प्रकार के धर्म का पाख्यान पारने लगा कि सग्रन्थ-वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह धारण करने वाला भी निर्वाण प्राप्त भार सकता है।" "उसने एवं उसके अनुसानों ने ऐसे-ऐसे शास्त्रों की रचना की, जो उन द्वारा अपनाये गये पाखण्डों के अनुरूप थे । वे लोगों में उनकी व्याख्या करते हुए उस प्रकार के आचरण का प्रसार करने लगे। वे निर्ग्रन्थ-मार्ग पर दोष लगाते, उसकी निन्दा करते, मूद जनों से माया, छलना या प्रवंचना द्वारा बहुत-सा द्रव्य प्राप्त करते ।"4 १. ता संतिणा पउत्त चरियपभोहिं जीवियं लोए । एयं ण हु सुन्दरयं दूसणयं जइणमग्गस्स ॥ ६६ ॥ णिग्गंथं पव्वयणं जिणवरणाहेण अक्खियं परमं ।। तं छंडिऊण अण्णं पवत्तमारणेण मिच्छत्त ॥ ६७ ॥ २. ता रूसिऊण पहओ सीसे सीसेण दोहदंडेण । थविरो धाएण मुओ जाओ सो वितरो देवो ॥ ६८ ॥ ३. इयरो संघाहिवइ पयडिअ पासंड सेवडो जाओ। ___ अक्खइ लोए धम्म सग्गंथं अत्थि णिव्वाणं ॥ ६९ ॥ ४. सत्थाइ विरइयाई णियणियपासंडगहियसरिसाइं। वक्खाणिऊण लोए पवत्तिओ तारिसायरणो ॥ ७० ॥ णिग्गंथ दूसित्ता णिदित्ता अप्पणं पसंसित्ता। जीवे मूढए लोए कयमाए गेहियं बहुदव्वं ॥ ७१॥ . . -भावसंग्रह Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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