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माशा और साहित्य ] .. शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ॥ १२१ माचार्य भद्रवाहु अवस्थित थे । वे विख्यात निमित्तवेत्ता थे । नैमित्तिक ज्ञान द्वारा उन्हें कुछ आनास हुआ; अतः उन्होंने अपने श्रमण-संघ से कहा--"जब तक बारह वर्ष पूरे होंगे, यहां दुभिक्ष रहेगा। इसलिए मुनियों को चाहिए कि वे अपने-अपने संघ सहित देशान्तर चले जायें।"
"आचार्य भरबाहु का यह वचन सुनकर सब संघनायक अपने-अपने संघों के साथ उन प्रदेशों की और विहार कर गये, जहां सुभिक्ष था।''
- "शान्ति नामक एक संघनायक अपने बहुत से शिष्यों के साथ सुरम्य सौराष्ट्र में स्थित बलभी नगर में आये ।"
"वहां चले तो गये, पर वहां भी दारुण तथा प्रत्यन्त घोर दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई । यहां तक कि क्षुधा से पीड़ित दीन-जन भोजन किये हुए लोगों के उदर चीर-चीर . कर वहां स्थित अन्न निकाल-निकाल कर खाने लगे।"
"ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर प्राचार्य शान्ति के सभी साधुओं ने बाध्य होकर कम्बल, दण्ड, तुम्बिका या लौकी का पात्र तथा देहावरण हेतु श्वेत वस्त्र धारण कर लिये।
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१. आसी उज्जेणीणयरे आयरियो भद्दबाहु णामेण । .
जाणिय सुणिमित्तधरो भणिओ संघो पिओ तेण ॥ ५३ ॥ होहइ इह भिक्खं बारहबरसाणि जाव पुण्णाणि ।
देसंतराए गच्छह णिय णिय संघेण संजुत्ता ॥ ५४ ॥ २. सोऊण इयं धयणं णाणावेसेहि गणहरा सवे। .
गिय-णिय-संघ-पउत्ता विहरिआ जत्थ सुभिक्खं ॥ ५५ ॥ ३. एक्क पुण संति णामो संपत्तो बलही णाम णयरीए ।
बहुसीससंपउत्तो विसए सोरट्ठए रम्मे ॥ ५६ ॥ ४. तत्थ चि गयस्स जायं दुभिक्खं दारुणं महाघोरं ।
जत्थ वियारिय उयरं खद्दो रकेहि कुरुत्ति ।। ५७ । ५. तं लहिऊण णिमित्त गहियं सवेहि कम्बलि दंडं । बुद्दियपत्तं च तहा पावत्थं सेयवत्थं च ॥ ५८ ॥
-भावसंग्रह
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