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________________ भाषा और साहित्य] विश्व भाषा-प्रवाह और लंका आदि में भी द्रविड़-परिवार की ( तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, तुलु, कुडागू, टोडा आदि ) भाषाओं का प्रचलन है। इसका आशय यह है कि किसी प्रदेश में द्रविड़परिवार की कोई एक भाषा बोली जाती है, दूसरे में कोई अन्य । जैसे, आन्ध्र में तेलुगू, तमिलनाडु में तमिल, लंका में जो तमिल भाषी लोग बसे हुए हैं. उनमें तमिल, केरल में मलयालम तथा कर्नाटक में कन्नड़ बोली जाती है। आर्य जाति का मूल स्थान यदि भारतवर्ष होता, तो यह स्वाभाविक था कि उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा-परिवार की भाषाए ही समग्न भारत में व्यवहृत होतीं। ऐसा नहीं हुआ, इसका एक सम्भावित कारण यह हो सकता है कि द्रविड़-परिवार की भाषाएं बोलने वाले पहले से ही यहां बसे हुए हों, जिनकी अपनी भाषाए भी कुछ विकसित रही हों । तदनन्तर आर्यों का आगमन हुआ हो । तब उनके द्वारा प्रयुज्यमान भाषा-परिवार को विविध भाषाए भारत के समग्र उत्तरो भाग में क्रमशः विस्तार पाती गयी हों। मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से कुछ नये तथ्य उद्वाटित होते हैं। इनका समय ऋग्वेद से पहले का है। वहां प्राप्त सामग्री के आधार पर विद्वानों ने उस सम्बन्ध में विशेष गवेषणा की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि मोहन जो-दड़ो आर्यों के भारतआगमन से पूर्व की किसी समृद्व सभ्यता का भग्नावशेष है । उस सभ्यता के लोगों को अपनो भाषा, संस्कृति तथा एक व्यवस्थित जीवन-प्रणाली थी। इस सन्दर्भ में उद्घाटित तथ्यों या निष्कर्षों के अनुसार ऐसा सम्भाव्य हो सकता है कि मोहन-जो-दड़ो से सम्बद्ध सभ्यता, संस्कृति द्रविड़ों की रही हो, उनकी अपनी भाषा भी रही हो, जिसका विकास आज तमिल, तेलुगू तथा कन्नड़ आदि के रूप में पाते हैं। प्राचीन भू-विज्ञान, जल-वायु-विज्ञान, भाषा-विज्ञान तथा नृवंश-विज्ञान आदि पर हुए गवेषणात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर आर्यों का मूल स्थान वर्तमान काल में भारतवर्ष की जो सीमाए हैं, उनसे कहीं बाहर होना चाहिए। सुप्रसिद्ध भारतीय विद्वान् लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आदि ने भी आर्यों का मूल स्थान भारतवर्ष से बाहर ही माना है। मूल स्थान भारत से बाहर यह विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है; अतः इस पर बहुत गहराई से चिन्तन हुआ है, अब भी होता है । यहां इस सम्बन्ध में विश्व के विभिन्न विद्वानों के नाना अभिमत विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन पर कुछ विचार करना उपयोगी होगा। संस्कृत भाषा वेदों के महान विद्वान् प्रो० मैक्स मूलर द्वारा पामीर का प्लेटो तथा उसके आसपास मध्य एशियां, स्कैंडनेवियन भाषाओं के विद्वान् डा० ले धम ( Ladham ) द्वारा स्केंडनेविया, इटली के ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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