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मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
___ द्वादशांग के अन्तर्गत बारहवें अंग दृष्टिवाद का चौथा भेद पूर्वगत है। वह चतुर्दश पूर्वो में विभक्त है । उनमें दूसरा आग्रायणीय पूर्व है । उनके निम्नांकित चवदह अधिकार हैं :
१. पूर्वान्त, २. अपरान्त, ३. ध्रुव, ४. अध्र व, ५. चयनलब्धि, ६. अर्धापम, ७. प्रणिधिकरुप, ८. अर्थ, ९. भौम, १०. व्रतादिक, ११. सर्वार्थ, १२. कल्पनिर्याण, १३. प्रतीतसिद्धबद्ध तथा १४. अनागत । ___ इनमें पांचवां चयनलन्धि अधिकार बीस पाहुडों में विभक्त है । उनमें चौथा पाहुड कर्मप्रकृति है । उसके चौबीस अनुयोगद्वार हैं, जो इस प्रकार हैं : १. कृति, २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कर्म ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ९. उपक्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्या-कर्म, १५. लेश्या-परिणाम, १६. सातासात, १७. दीर्घह्रस्व, १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्म, २०. निधत्तानिधत्त, २१. निकाचितानिकाचित, २२. कर्म-स्थिति, २३. पश्चिमस्कन्ध तथा २४. अल्पबहुत्व । इनके तथा इनके भेदोपभेदों के आधार पर षट्खण्डागम की रचना हुई।
षट्खण्डागम : एक परिचय
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छः खण्डों में पहले खण्ड का शीर्षक जीवट्ठाण है। इसका अधिकांश भाग कर्मप्रकृति नामक पाहुड़ के बन्धन संज्ञक छठे अनुयोगद्वार के बन्ध-विधान नामक भेद के आधार पर प्रणीत हुआ है।
जीवट्ठाण के अन्तर्गत पाठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वारों के नाम इस प्रकार हैं : १. सत्, २. संख्या, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव तथा ८. अल्पबहुत्व ।
नौ चूलिकाएं निम्नांकित हैं :
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तना, २. स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५. तीन महादण्डक, ६. जघन्य स्थिति, ७. उत्कृष्ट स्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पति तथा ९. गति-प्रगति ।
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१. बन्धन के भेद-बन्ध, बन्धनीय, बन्धक, बन्ध-विधान ।
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