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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय
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प्रशस्ति में उन्होंने ज्योतिष शास्त्रीय शैली में कुछ महत्वपूर्ण संकेत किये है । स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने प्रशस्ति के उस भाग का, जो धवला की समाप्ति के समय का सूचक है, विशेष परिशीलन एवं सूक्ष्मतया पर्यवेक्षण कर परिष्कृत रूप उपस्थित किया है, जिसके अनुसार धवला की सम्पूर्णता का समय शक संवत् ७३८ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी निश्चित होता है।
आचार्य धीरसेन के सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने पूज्यचरण गुरु द्वारा समारब्ध जयधवला टीका की पूर्ति शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमी को की। उस समय राजा अमोघवर्ष का शासन-काल था।'
धवला की पूर्ति और जयधवला की पूर्ति के बीच २१ वर्ष का समय पड़ता है। प्राचार्य वीरसेन के देहावसान की यह पूर्वापर सीमा है।
जैन साहित्य एवं इतिहास के अन्वेष्टा स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने आचार्य वीरसेन का समय शक संवत् ६६५ से ७४५ तक माना है, जो अनेक पूर्वापर सन्दर्भो एवं प्रमाणों पर आधारित है।
१. अठतीसम्हि सतसए विक्कामरायंकिए सु- सगणामे ।
वासे सुतरेसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे ।। जगतुगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ।। चावम्हि तरणिवुत्ते सिंघे सुक्कम्मि मीरणेचंदम्मि । कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥
--धवला-प्रशस्ति ६-८ २. इतिश्री वीरसेनीया टीका सूत्रार्थदशिनी । , वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥
फाल्गुने मासि पूर्वाह, रणे दशभ्यां शुक्ल पक्ष के । प्रवर्द्धमानपूजोरूनन्दीश्वरमहोत्सवे
॥ अमोघवर्ष राजेन्द्रराज्य प्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायावाकल्पान्तमनल्पिका ॥ एकोन्नषष्टिसमधिकसप्तशत शकनरेन्द्रस्य। समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याखया ॥
-जयधवला-प्रशस्ति ६-९
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