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________________ आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन था । हो सकता है, राजा अमोघवर्ष के इन उज्ज्वल, धवल, निर्मल गुणों के कारण यह विशेषण प्रचलित हुआ हो अथवा उसकी देह-सम्पदा-सौष्ठव, गौरत्व आदि के कारण भी लोगों को उसे उस उपाधि से सम्बोधित करने की प्रेरणा हुई हो । अमोघवर्ष विद्वानों, त्यागियों एवं गुणियों का बड़ा आदर करता था। उनके साथ उसका श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध था, अतः यह अनुमान करना भी असंगत नहीं लगता कि राजा अमोघवर्ष का उक्त विशेषण इस नाम के पीछे प्रेरक हेतु रहा हो। जैसा भी रहा हो, इस टीका ने केवल दिगम्बर जैन वाङमय में ही नहीं, भारतीय तत्त्व-चिन्तन के व्यापक क्षेत्र में निःसन्देह अपने नाम के अनुरूप धवल, उज्ज्वल यश अर्जित किया। मानो नाम की आवयविक सुषमा ने भावात्मक सुषमा को भी अपने में समेट लिया हो। অনলা ৷ ৰাহ कहा ही गया है, यह टीका प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित है। इस प्रकार की सम्मिश्रित भाषामयी रचना मणि-प्रवाल-न्याय से उपमित की गई है। मणियां तथा प्रवाल परस्पर मिला दिये जायें तो भी वे अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार प्राकृत तथा संस्कृत मिलने पर भी पृथक्-पृथक् दिखाई देती रहती हैं । ___टीकाकार द्वारा किये गये इस द्विविध भाषात्मक प्रयोग की अपनी उपयोगिता है। तात्त्विक अथवा दार्शनिक विषयों को तार्किक शैली द्वारा स्पष्ट करने में संस्कृत का अपना एक महत्व है। उसका अपना विशिष्ट, पारिभाषिक शब्द-समुच्चय एवं रचना-प्रकार है, जो अनन्य-साधारण है । प्राकृत लोकजनीन भाषा है,जो कभी इस देश में बहु-प्रचलित थी। टीका की रचना केवल पाण्डित्य-सापेक्ष ही न रह जाये, उसमें लोकजनीनता भी व्याप्त रहे, प्राकृत-भाग इस अपेक्षा का पूरक माना जाये तो अस्थानीय नहीं होगा। टीकाकार ने अपने समय तक उपलब्ध बहुविध दिगम्बर-श्वेताम्बर-साहित्य का मुक्त रूप से उपयोग किया है। अनेक ग्रन्थों के यथाप्रसंग, यथापेक्ष अंश उद्धृत किये हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपनी टीका को सम्पूर्णतः समृद्ध एवं सर्वथा उपादेय बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। उसकी शैली समीक्षा, विश्लेषण एवं विशद विवेचन की दृष्टि से वास्तव में असाधारण है। শপণন : প্রমথ वीरसेनाचार्य के काल के सम्बन्ध में अनिश्चयात्मकता नहीं है। धवला की अन्तिम Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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