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भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [६६३
उपर्युक्त अनुयोगद्वारों तथा चूलिकाओं में विवेच्य विषयों का गुणस्थानों तथा मार्गणाओं के आधार पर बड़ा विस्तृत विवेचन हुआ है।
ફુલરા રાજ
दूसरे खण्ड का नाम खुद्दाबन्ध है, जिसका संस्कृत-रूप क्षुल्लक बन्ध होता है । यह कर्मप्रकृति पाहुड़ के बन्धन संज्ञक अनुयोगद्वार के बन्धक नामक भेद के आधार पर सृष्ट हुआ है । यह खण्ड ग्यारह अधिकारों में विभक्त है, जो निम्नांकित हैं :
१. स्वामित्व, २. काल, ३. अन्तर, ४. भगविचय, ५. द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, ८. नानाजीवकाल, ९. नाना जीव अन्तर, १०. भागाभागानुगम तथा ११. अल्पबहुत्वानुगम ।
प्रस्तुत खण्ड में कर्म बांधने वाले जीव, कर्म-बन्ध के भेद आदि का उपयुक्त अधिकार संकेतक इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन किया गया है ।
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तीसरा खण्ड बन्धस्वामित्वविचय संज्ञक है। कर्मप्रकृति पाहुड़ के बन्धन अनुयोगद्वार का बन्ध-विधान नामक भेद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के रूप में चार प्रकार का है । प्रकृति के दो भेद हैं-मूल तथा उत्तर । उत्तर प्रकृति दो प्रकार की है—एकैकोत्तर तथा अवोगाढ़ । एककोत्तर प्रकृति के २४ भेद हैं, जो इस प्रकार हैं :
१. समुत्कीतंना, २. सर्वबन्ध, ३. नोसर्व, ४. उत्कृष्ट, ५. अनुत्कृष्ट, ६. जघन्य, ७. अजघन्य, ८. सादि, ९. अनादि, १०. ध्रुव, ११. अध्र व, १२. बन्धस्वामित्वविचय, १३. बन्धकाल, १४. बन्धान्तर, १५. बन्धसन्निकर्ष, १६. भंगविचय १७. भागाभाग, १८. परिमारण, १९. क्षेत्र, २०. स्पर्शन, २१, काल, २२. अन्तर, २३. भाव तथा २४. अल्पबहुत्व । ___ इनमें बारहवें बन्धस्वामित्वविचय के आधार पर इस खण्ड की रचना हुई है। इस खण्ड में मुख्यतः निम्नांकित विषयों का विशद विश्लेषण है :
किस जीव के किन-किन प्रकृतियों का कहां तक बन्ध होता है, किस जीव को नहीं होता।
किस गुणस्थान में कौन-कौनसी प्रकृतियां व्युच्छिन्न हो जाती हैं ।
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