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१३४ 1 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरण का विश्लेषण ग्रन्थ का मुख्य विषय नहीं था। युग-प्रवाह को देखते हुए उन्हें सम्भवतः यही समीचीन लगा हो कि संस्कृत के माध्यम से प्राकृत तक पहुंचा जाये । प्राकृत को सीधे व्याख्यात करना उन्हें रुचिकर भी नहीं लगा होगा, क्योंकि बोलचाल में प्राकृत का व्यवहार नहीं रहा। इतना ही नहीं, बल्कि उसके स्वतन्त्र अध्ययन की प्रवृत्ति भी क्षीण हो चुकी थी। उसका अध्ययन संस्कृत-सापेक्ष बन ही गया था। लगता है, इसीलिए उन्हें प्राकृत के आधार को स्वीकार करना समयानुकूल और अध्ययनानुकूल प्रतीत हुआ है। शब्दों के संस्कृत रूप इन-इन परिवर्तनों से प्राकृत रूप बम जाते हैं; यही प्राकृत भाषा में प्रवेश पाने का सुगमतम मार्ग था। अस्तु; इसी परिपावं में उन्हें संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहना उचित लगा है, यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है।
आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रान्त नहीं थे। काव्यानुशासन की पहली कारिका में वे कहते हैं :
अकृत्रिमस्वादुपदां, परमार्थाभिधायिनीम् ।
सर्वभाषापरिणतां, जैनीं वाचमुपास्महे ॥ अलंकारचूड़ामणि नामक स्वोपज्ञ व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं : अकृत्रिमाणि-असंस्कृतानि अतएव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्या मिति विग्रहः । ......"तथा सुरनरतिरश्या विचित्रासु भाषासु परिणतां तन्मयतां गतां सर्वभाषापरिणताम् ।
शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मन्मनोरथम् । पूरयस्व महर्षे ! त्वं, बिना त्वामत्र कः प्रभुः ॥ यशो मम तव ख्यातिः, पुण्यं च मुनिनायक । विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरण नवम् ॥
-प्रभावकचरित १२, ८१, ८२, ८४ भाचार्य हेमचन्द्र के इस व्याकरण की गुजरात में तथा अन्यत्र बहुत प्रशस्ति हुई। इस सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है :
किं स्तुमः शब्दपायोधेहेमचन्द्रयतेमतिम् ।
एकेनापि हि येनेहा , कृतं शब्दानुशासनम् ॥ सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् जिनमण्डल ने भी इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किये हैं :
जयसिंहदेववपणाउ निम्मियं सिद्धहेमवागरणं । नीसेस सद्दलणखणनिहाण मिमिणा मुणिदेणं ॥ (जयसिंहपचनात् निर्मितं सिद्धहैमव्याकरणम् । विशेषशानिधानमनेन मुनीन्द्रग॥)
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