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________________ शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ra जम्बू से अन्तिम श्रुत- केवली भद्रबाहु तक दिगम्बर- पट्टावली के अनुसार नन्दी (विष्णु) नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु ये पांच श्रुत- केवलो होते हैं । श्वेताम्बरपरम्परा में जम्बू के पश्चात् भद्रबाहु तक प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, विजय तथा भद्रबाहु — ये पांच श्रुत- केवली होते हैं । भाषा और साहित्य ] - दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु के अतिरिक्त चारों श्राचार्यों के नाम भिन्न-भिन्न हैं । इससे यह अनुमान लगाना असंभाव्य कोटि में नहीं जाता कि किन्हीं मुद्दों को लेकर जैन संघ में जम्बू के बाद भेद पड़ गया था । जिनमें सम्भवतः मुख्य मुद्दा निर्वस्त्रता एवं वस्त्रता का रहा होगा । भद्रबाहु के बाद की पट्टावली तो भिन्न है ही । विविध प्रक्रिया जब किसी परम्परा, पद्धति या रीति-नीति के निर्वाह की चिन्ता होती है, तब मानव arefoot सन्धानोन्मुख रहता है । वह सब कुछ वैसा करता है, जिससे स्थिति सधे, टूटे नहीं । जब किसी परम्परा में भेद पड़ जाता है, वह एकाधिक भागों में बट जाती है, तो प्रत्येक बंटे हुए भाग का दृष्टिकोण प्रायः बदल जाता है । वह उस प्राक्तन परम्परा में निहित सारी महिमा को स्वयं अपने में समेट लेना चाहता है, यद्यपि वैसा करने में वह पूरा सफल तो नहीं होता । इस मनोवृत्ति के प्रतिफल कई रूपों में प्रस्फुटित होते प्रत्येक विभक्त अंश अपने को परम्परा का मूल बताता है, दूसरे को उससे विकृत होकर निकला हुआ । श्वेताम्बरो तथा दिगम्बरों द्वारा एक-दूसरे के उद्भव के सन्दर्भ में गढ़े गये कथानकों से यही सब प्रकट होता है । । : प्रत्येक सम्प्रदाय का वैचारिक आधार उसके शास्त्र हैं । उन्हीं के बल पर वह सम्प्रदाय पनपता है, विकसता है । श्रतएव वह अपने शास्त्रों को परिरक्षित बनाये रखने की चिन्ता को सर्वथा छोड़ नहीं सकता । बौद्धों तथा जैनों की श्रागम संगीतियां इसके उदाहरण हैं । जिस सम्प्रदाय का जिन शास्त्रों से मण्डन नहीं होता, प्रत्युत् खण्डन होता है, यह स्वाभाविक है, वह अन्ततः उन शास्त्रों का बहिष्कार कर देता है । उन्हें कल्पित, प्रक्षिप्त या कृत्रिम करार दे देता है। ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी — उन शास्त्रों के आधार पर शास्त्रार्थं करने का अवकाश ही मिट जाये । दिगम्बर परम्परा द्वारा श्वेताम्बरपरम्परा-सम्मत ग्यारह अंगों के सर्वथा विच्छिन्न हो जाने की उदघोषणा करते हुए उन अंगों के सम्प्रति प्राप्त अंश को कृत्रिम और अप्रामाणिक बताने के पीछे कहीं ऐसी मनःस्थित ने तो कार्य नहीं किया ? यह सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक परिशीलनीय है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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