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________________ .५५८] आगम और बिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ श्वेताम्बर-आगमों में जिन-कल्प तथा स्थविर-कल्प के रूप में नग्न और सवस्त्र-दोनों मुनि-प्राचार-विधियों का निरूपण हैं । फलतः इससे श्वेताम्बर-श्रमण-आचार के साथसाथ दिगम्बर-श्रमण-प्राचार को भी पुष्टि मिलती है । दिगम्बर जिन शास्त्रों को अप्रामाणिक कहें, उन्हीं शास्त्रों से दिगम्बर-आचार का समर्थन हो, यह स्वाभाविक था, श्वेताम्बरों को कब स्वीकार होता ? यह असंभाव्य नहीं जान पड़ता कि कहीं इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप तो श्वेताम्बरों ने प्रार्य जम्बू के पश्चात् जिन-कल्प का विच्छेद घोषित न कर दिया हो, जिससे उनका शास्त्रीय समर्थन असामयिक एवं अनुपादेय बन जाये । अन्वेषक एवं समीक्षक विद्धान् जानते है कि धर्म-सम्प्रदाय के इतिहास में ऐसी घटनाएं अघटनीय नहीं होतीं। অাখা সপ্তাহ : গন্ধ - आर्य जम्बू के साथ जिन-कल्प-विच्छेद की मान्यता के उपरान्त भी श्वेताम्बर-परम्परा में जिन-कल्पी-साधक का एक और प्रसंग आता है। वे थे-प्राचार्य महागिरि । आचार्य स्थूलभद्र के वे उत्तराधिकारी थे। जैसा कि यथाप्रसंग सूचित किया गया है, वीर-निर्वाण सं० २१५ में स्थूलभद्र का स्वर्गवास हुआ। तब महागिरि धर्म-शासन के अधिनायक बने । ऐसा माना जाता है कि कुछ समय के पश्चात् उन्होंने धर्म-संघ का नेतृत्व व व्यवस्था-भार अपने सतीर्थ्य सुहस्ती को सौंप दिया और स्वयं जिन-कल्प साधना में जुट गये । जिन-कल्प के विच्छेद के बाद भी उन्होंने ऐसा किया, क्या इससे स्वीकृत परम्परा व्याहृत नहीं होती ? यह एक प्रश्न है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने महागिरि के जिन-कल्प स्वीकारने का उल्लेख किया है तथा साथ-ही-साथ विच्छिन्न परम्परा की रक्षा का भी प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है। "प्राचार्य महागिरि ने अपना गच्छ सुहस्ती को सौंप दिया। अपने मन में जिन-कल्पसाधमा का अवधारण कर एकाकी विहार स्वीकार किया। जिन-कल्प का विच्छेद था, इसलिए वे गच्छ की नेश्राय में रहते हुए जिन-कल्पोचित वृत्ति से विहार करते थे।" १. महागिरिनिजं गच्छमन्यदावात्सुहस्तिने । विहतुं जिनकल्पेन त्वेकोऽभून्मनसा स्वयम् ॥ व्युच्छेवाजिनकल्पस्य गच्छनिश्रास्थितोऽपि हि । जिनकल्पाहया वृत्या विजहार महागिरिः ॥ -परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११.३.४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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