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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसैनी प्राकृत और उसका वाङमय । ५५६ ___ महागिरि को गच्छ के नेत्राय में रखकर हेमचन्द्र ने उनकी जिन-कल्प-साधना का समर्थन किया है । फिर भी यह समीचीनतया समाधायक प्रतीत नहीं होता। जब जिनकल्प विच्छिन्न ही था, तब महागिरि उसे स्वीकार क्यों करते ? स्थविर-कल्प में रहते हुए भी यदि वे चाहते तो परमोत्कृष्ट साधना में अपने को लगा सकते थे। वहां भी इसके लिए अवकाश था। महागिरि के प्रसंग से ऐसा अनुमान होता है कि श्वेताम्बरों में भी जिन-कल्प (जहां अनिवार्यतः निर्वस्त्र रहना होता था) की ओर झुकाव तब तक पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाया था। আহাহা जैसा कि यथाप्रसंग चर्चित हुआ है, महागिरि का आचार्य-काल तीस वर्ष का था। उनके प्राचार्य-काल का अवसान वीर-निर्वाण संवत् २४५ में होता है। वही उनके देहावसान का काल माना जाता है। इससे ऐसा अनुमेय है कि महागिरि ने कुछ वर्ष संघ के प्राचार्य के रूप में अपना दायित्व निभाया हो। यह नहीं कहा जा सकता, वह कितने वर्ष का काल था । उस बीच उनके मन में जिन-कल्प की कठोर साधना का भाव उदित हुआ हो और अपने सतीर्थ्य सुहस्ती को संघ का उत्तरदायित्व सौंप वे उसमें जुट गये हो। संघ का नेतृत्व तो सुहस्ती करते रहे हों, पर महागिरि के जीवन-काल में आचार्य के रूप में महागिरि का ही नाम रहा हों; क्योंकि सुहस्ती का प्राचार्य-काल वीर-निर्वाण संवत् २४५ के पश्चात् प्रारम्भ होता है । उपसंहार जैन श्रमण संघ में प्रार्य जम्बू के अनन्तर जो मनोभेद प्रारम्भ हुआ, जिसके विभिन्न पहलू पिछले पृष्ठों में चर्चित हुए हैं, उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। यों चलते-चलते वीर-निर्वाण संवत् ६०० के लगभग आ पहुंचने पर वह भेद और दृढ़ तथा स्थिर बन जाता है, जिसकी परिणति दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दो भिन्न सम्प्रदायों के रूप में होती है । श्वेताम्बरआगम दिगम्बरों द्वारा सर्वथा अस्वीकृत कर दिये जाते हैं। অশথ পা বন্ধ অাসনৰ সম্বল दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा के रूप में जैन संघ में भेद पड़ गया। वह भी इतना गहरा, चिसे पाट सकना तब भी दुःशक्य था, आगे भी दुःशक्य रहा, और है । जैन Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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