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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ख : २ घोषसम-घोष का अर्थ ध्वनि है । पाठ शुद्ध घोष या ध्वनिपूर्वक उच्चरित किया
जाना चाहिए । व्याख्याकारों ने घोष का आशय उदात्त', अनुदात्त तथा स्वरित अभिहित किया। जहां जिस प्रकार का स्वर उच्चरित होना अपेक्षित हो, वहां वैसा ही उच्चरित होना । वेद-मन्त्रों के उच्चारण में बहुत सावधानी रखी जाती थी। घोषसम के अभिप्राय में इतना और जोड़ा जाना भी संगत प्रतीत होता है कि जिन वर्गों के जो-जो उच्चारण स्थान हों, उनका उन-उन स्थानों से यथावत् उच्चारण किया जाए। व्याकरण में उच्चारणसम्बन्धी जिस उपक्रम को प्रयत्न किया जाता है, घोषसम में उसका भी समावेश होता है।
१. उच्चदात्तः।२. नोचैरनुदातः।३. समवृत्या स्वरितः। -वैयाकरणसिद्धान्त कौमुदी, १.२ २९-३१ ४. मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह। सा वाग्वजो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्र शत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥
-पाणिनीय शिक्षा, ५२ ५. वर्णों के उच्चारण में कुछ चेष्टा करनी पड़ती है, उसे 'यल' कहते हैं। यह दो प्रकार
का है। जो वर्ण के मुख से बाहर आने से पहले मुख के भीतर होता है, उसको अभ्यान्तर कहते हैं। यह मुख के भीतर होता हैं और पहले होता है। बिना इसके बाह्य यत्न निष्फल है। यही इसकी प्रकृष्टता है; अतएव इसे प्रयत्न कहा जाता है। 'प्रकृष्टो यत्नः प्रपत्नः' यह अर्थ संगत भी इसीलिए है । इसका अनुभव उच्चारण करने वाला ही कर सकता है; क्योंकि उसी के मुख के भीतर तो यह होता है। दूसरा यत्न मुख से वर्ण निकलते समय होता है; अतएव यह बाह्य कहा जाता है। इसका अनुभव . सुनने वाला भी कर सकता है । यत्नो द्विधा-आभ्यन्तरो बाहश्च । आद्य: पंचधास्पृष्ट-ईषत्स्पृष्ट-ईषद्विवृत-विवृत-संवृत मेवात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम् । ईषद्विवृतभूष्मणाम् । विवृतं स्वराणाम् । हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे सवृतम् , प्रक्रियावशायां तु विवृतमेव । बाह्यस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽ घोषोऽ ल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति । खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथम तृतीयपंचमा मणश्चाल्पप्राणा:। वर्गाणां द्वितीयचतुर्थों शलश्च महाप्राणाः।।
-लघु सिद्धान्त कौमुदी, संज्ञाप्रकरणम्, पृ० १८-२०
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