SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय [४७९ विशेष बलपूर्वक आगे कहा गया है कि साधक की देह संयम-पालन के लिए है, भोग के लिए नहीं है । यदि देह ही नहीं रही, तो संयम-पालन का प्राचार-स्थल ही कहां बचा ? अतः देह-रक्षा या शरीर को नष्ट न होने देने का अर्थ देह के प्रति आसक्ति नहीं है, प्रत्युत संयम के प्रतिपालन की भावना है। अतः देह-प्रतिपालन इष्ट है। निशीथ-चूणि में भी यह प्रसंग व्याख्यात हुआ है। वहां भी वरिणत है कि जहां तक हो सके, संयम की विराधना नहीं करनी चाहिए, पर, यदि कोई भी उपाय न हो, तो जीवन रक्षा के लिए वैसा किया जा सकता है। ওবাব-নবথা संयमी जीवन के निर्वाह हेतु जो न्यूनतम साधन उपकरण अपेक्षित होते हैं, उन्हें उपधि कहा जाता है । प्रस्तुत प्रकरण में इस विषय का विवेचन है, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण श्रमण द्वारा धारण किये जाने चाहिए या नहीं किये जाने चाहिए; जैन परम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में यह एक विवादास्पद प्रसंग है, जिसके सन्दर्भ में दोनों ओर से द्विविध विचार-धाराएं एवं समाधान उपस्थित किये जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के इस प्रकरण का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक परिशीलन इस विषय में अनुसन्धित्सा रखने वालों के लिए वस्तुतः बड़ा उपयोगी है । इस प्रकरण में जिनकल्पी श्रमण, स्थविर कल्पी श्रमण तथा आर्यिका या साध्वी के लिए प्रयोज्य उपकरणों का विवरण है । জন্ধী ও অনিং ঋণী ঈ ওহথা ___ जिनकल्पी के लिए जो उपकरण विहित हैं, उनका इस ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लेख है: १. पात्र, २. पात्र-बन्ध, ३. पात्र-स्थापना, ४. पात्र-केसरिका ( पात्र-मुख-वस्त्रिका ), ५..पटल, ६. रजस्त्राण, ७. गोच्छक, ८-१०. प्रच्छादक-त्रय, ११. रजोहरण तथा १२. मुख-वस्त्रिका । प्राप्त सूचनाओं से विदित होता है कि पटल नामक वस्त्र का उपयोग भोजन-पात्र को आवृत करने के लिए तथा अपेक्षित होने पर गुह्यांग को ढकने के लिए भी होता था। स्थविर-कल्पी श्रमणों के लिए बारह उपकरण तो थे ही, उनके अतिरिक्त चोलपट्ट और मात्रक नामक दो उपकरण और थे। इस प्रकार उनके लिए चौदह उपकरणों का विधान था। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy