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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ओहनिज्जुत्ति (ोघ-नियुक्ति)
নাম। থাহত্বা
बोध का अर्थ प्रवाह, सातत्य, परम्परा या परम्परा-प्राप्त उपदेश है । इस ग्रन्थ में साधु-जीवन से सम्बद्ध सामान्य समाचारी का विश्लेषण है । सम्भवतः इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ। जिस प्रकार पिण्ड नियुक्ति में साधुओं के आहार-विषयक पहलुओं का विवेचन है, उसी प्रकार इसमें साधु-जीवन से सम्बद्ध सभी आचार-व्यवहार के विषयों का संक्षेप में संस्पर्श किया गया है।
पिण्ड-नियुक्ति दशवकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है, उसी प्रकार इसे आवश्यक-नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है, जिसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं । इसमें कुल ८११ गाथाएं है । नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएं इस प्रकार विमिश्रित हो गई हैं कि उन्हें पृथक्-पृथक कर पाना दुःशक्य है।
___ ओध-नियुक्ति प्रतिलेखन-द्वार, पिण्ड-द्वार, उपघि-निरूपण, अनायतन-वर्जन, प्रतिसेवना-द्वार, आलोचना-द्वार तथा विशुद्धि-द्वार में विभक्त है। प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु-जीवन के प्रायः सभी चर्या-अंगों के विश्लेषण का इसमें समावेश है।
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एक चिर-चर्चित प्रसंग है, जिस पर इसमें भी विचार किया गया है । वह प्रसंग है: आत्म-रक्षा-जीवन-रक्षा का अधिक महत्व है या संयम-रक्षा का ? दोनों में से किसी एक के नाश का प्रश्न उपस्थित हो जाए, तो प्राथमिकता किसे देनी चाहिए ? इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। कुछ ने संयम-रक्षा हेतु मर मिटने को आवश्यक बतलाया है और कुछ ने जीवन-रक्षा कर फिर प्रायश्चित्त कर लेने का सुझाव दिया है।
. ओघ-नियुक्ति में बताया गया है कि श्रमण के संयम का प्रतिपालन सदा पवित्र भाष से ही करना चाहिए, पर,यदि जीवन मिटने का प्रसंग बन जाए, तो वहां प्राथमिकता जीवन-रक्षा को देनी होगी। यदि जीवन बच गया, तो साधक एक बार संयम-च्युत होने पर भी प्रायश्चित्त,तप आदि द्वारा प्रात्म-शुद्धि या अन्तःसम्मान कर पुनः यथावस्थ हो सकेगा। परिणामों की सात्विकता या भाव-विशुद्धि ही तो संयम का आधार है।
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