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भाषा और साहित्य ]
आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय
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संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम तथा कारण हैं । भिक्षा से सम्बद्ध अनेक पहलुओं का विस्तृत तथा साथ-ही-साथ रोचक वर्णन है । वहां उद्गम और उत्पादन दोष के सोलहसोलह तथा एषणा - दोष के दश भेदों का वर्णन है । भिक्षागत दोषों के सन्दर्भ में स्थानस्थान पर उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि अमुक मुनि वैसे दोष का सेवन करने के कारण प्रायश्चित्त-भागी हुए ।
गृहस्थ के यहां से भिक्षा किस-किस स्थिति में ली जाए, इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण चर्चाएं हैं। बताया गया है कि यदि गृह स्वामिनी भोजन कर रही हो, दही बिलो रही हो, आटा पीस रही हो, चावल कूट रही हो, रुई धुन रही हो, तो साधु को उससे भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । इसी प्रकार अत्यन्त नासमझ बालक से, अशक्त वृद्ध से, उन्मत्त से, जिसका शरीर कांप रहा हो, जो ज्वराक्रान्त हो, नेत्रहीन हो, कुष्टपीड़ित हो, ऐसे व्यक्तियों से भी भिक्षा लेना अविहित है । भविष्य कथन, चिकित्सा - कौशल, मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण आदि से प्रभावित कर भिक्षा लेना भी वर्जित कहा गया है ।
कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख
प्रसंगोपात्ततया सर्प दंश आदि को उपशान्त करने के लिए दीमक के घर की मिट्टी, वमन शान्त करने के लिए मक्खी की बींठ, टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए किसी की हड्डी, कुष्ट रोग मिटाने के लिए गौमूत्र का प्रयोग आदि साधुओं के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं ।
साधु जिह्वा स्वाद से अस्पृष्ट रहता हुआ किस प्रकार अनासक्त तथा अमूच्छित भाव से भिक्षा ग्रहण करे, गृहस्थ पर किसी भी प्रकार का भार उत्पन्न न हो, वह उनके लिए असुविधा, कष्ट या प्रतिकूलता का निमित्त न बने, उसके कारण गृहस्थ के घर में किसी प्रकार की अव्यवस्था न हो जाए; इत्यादि का जैसा मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है, वह जैन श्रमरण-चर्या के अनुसन्धान के सन्दर्भ में विशेषतः पठनीय है ।
पिण्ड - नियुक्ति पर आचार्य मलयगिरि ने वृहद् वृत्ति की रचना की । वीराचार्य ने
इस पर लघु वृत्ति लिखी ।
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