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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २
প্রথম সন্ধাহান
पाश्चात्य विद्वानों का प्राच्य विद्याओं के अन्तर्गत जैन वाडमय के परिशीलन की मोर भी झुकाव रहा है। उन्होंने उस प्रोर विशेष अध्यवसाय भी किया है, जो इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि जर्मन विद्वान् डा० अर्नेस्ट ल्यूमन (Dr. Ernest Leumann) ने ई० सन् १८९२ में जर्मन प्रारियन्टल सोसायटी के जर्नल (Journal of the German Oriental Society) में सबसे पहले दशवकालिक का प्रकाशन किया। उससे पहले यह ग्रन्थ केवल हस्तलिखित प्रतियों के रूप में था, मुद्रित नहीं हो पाया था। उसके पश्चात् भारत में इसका प्रकाशन हुआ । आगे उत्तरोत्तर इसके अनेक संस्करण निकलते गये । सन् १९३२ में सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान्, जैन आगम-वाङमय व प्राकृत के प्रमुख अध्येता डा० शुकिंग के सम्पादकत्व में प्रस्तावना आदि के साथ इसका जर्मनी में प्रकाशन हुआ।
पिंडनिज्जुत्ति (पिण्ड-नियुक्ति)
नाम : व्याख्या
पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आहार की एषणीयता, अनेषणीयता आदि के विश्लेषण के सन्दर्भ में उद्गम-दोष, उत्पादन-दोष, एषणा-दोष और ग्रास-एषणा-दोष आदि श्रमण-जीवन के आहार, भिक्षा प्रादि महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । मुख्यतः दोषों से सम्बद्ध होने के कारण इस प्रन्थ की अनेक गाथाएं सुप्रसिद्ध दिगम्बर-लेखक वट्टकेर के मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं।
फलेवर : स्वरूप
प्रस्तुत ग्रन्थ में छः सौ इकहत्तर गाथाएं हैं। यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । दशवकालिक के पंचम अध्ययन का नाम पिण्डषणा है। इस अध्ययन पर प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गयी है। यही कारण है कि इसे पिण्ड नियुक्ति के नाम से एक स्वतन्त्र आगम के रूप में स्वीकार कर लिया गया। नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं का इस प्रकार विमिश्रण हो गया है कि उन्हें पृथक्-पृथक् छांट पाना कठिन है।
पिण्ड-नियुक्ति आठ अधिकारों में विभक्त हैं, जिनके नाम उद्गम, उत्पादन, एषणा,
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