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भाषा और साहित्य] मार्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम बाङमय [४७५ विविधता
दूसरी चूलिका विविक्तचर्या है। विविक्त का अर्थ वियुक्त, पृथक्, निवृत्त, एकाकी, एकान्तस्थान या विवेकशील है। इसका आशय उस जीवन से है, जो सांसारिकता से पृथक् है । दूसरे शब्दों में निवृत्त है; अतएव विवेकशील है। इस चूलिका में श्रमण-जीवन को उद्दिष्ट कर अनुस्रोत में न बह प्रतिस्रोतगामी बनने, आचार-पालन में पराक्रमशील रहने, अल्प-सीमित उपकरला रखने, गृहस्थ से वैयावृत्य-शारीरिक सेवा न लेने, सब इन्द्रियों की सुसमाहित कर संयम-जीवन को सदा सुरक्षित बनाये रखने आदि के सन्दर्भ में अनेक ऐसे उल्लेख किये गये हैं, जिनका अनुसरण करता हुप्रा भिक्षु प्रलिबुद्धजीवी बनता है।
विशेषता : महत्व
अति संक्षेप में जैन-तत्व दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र व्याख्यात करने की अपनी असाधारण विशेषता के साथ-साथ शब्द-रचना, शैली तथा भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी इस सूत्र का कम महत्व नहीं है । इसमें प्रयुक्त भाषा के अनेक प्रयोग अति प्राचीन प्रतीत होते हैं, जो आचारांग तथा सूत्रकृतांग जैसे प्राचीनतम आगम-ग्रन्थों में हुए भाषा-प्रयोगों से तुलनीय हैं । इसराध्ययन में हुए भाषा के प्राचीनता द्योतक प्रयोगों के समकक्ष इसमें भी उसी प्रकार के अनेक प्रयोग प्राप्त होते हैं । यह अर्द्धमागधी भाषा-विज्ञान से सम्बद्ध एक स्वतन्त्र विषय है, जिस पर विशेष चर्चा करना प्रसंगोपात्त नहीं है । प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरण डा० पिशल ने उत्तराध्ययन तथा दशवकालिक को प्राकृत के भाषा शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया है ।
werer-rहित्य
दशवकालिक सूत्र पर प्राचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति की रचना की। अगस्त्य-सिंह तथा जिनदास महत्तर द्वारा पूणियां लिखी गयीं। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने टीका की रचना की । समयसुन्दर गणी ने दीपिका लिखी। तिलकाचार्य या तिलकसूरि, सुमतिसूरि तथा विनयहंस प्रभृति विद्वानों द्वारा वृत्तियों की रचना हुई। यापनीय संघ के अपराजित सूरि, जो विजयाचार्य के नाम से भी ख्यात हैं, ने भी टीका की रचना की, जिसका उन्होंने विजयोदया नामकरण किया। अपने द्वारा विरचित भगवती आराधना टीका में उन्होंने इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। ज्ञानसम्राट् तथा राजहंस महोपाध्याय ने इस पर गुजराती टीकामों की रचना की । ज्ञानसम्राट् द्वारा रचित टीका बालावरोध के नाम से विश्रुत है।
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