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________________ २००] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ होगा। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस संगीति के आयोक्ता तथा अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स, जो अपने समय के बहुत बड़े विद्वान्, तत्व-द्रष्टा और परम साधक थे, को ही इसका सारा श्रेय प्राप्त हो, इस दृष्टि से भी अशोक ने अपने को तटस्थ रखा होगा। उसे तटस्थता में अधिक लाभ प्रतीत हुआ होगा। जो भी हो, संगीति की ऐतिहासिकता इन कारणों से बाधित नहीं होती। संगोति के निर्णय अनेक प्रदेशों के बहुश्रुत भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया। यह संगीति नो मास तक चलती रही। इसमें बहुत गहराई और सूक्ष्मता से बुद्ध-वचन के यथार्थ स्वरूप के प्रकाशन का प्रयत्न रहा होगा। नौ महीनों के ऊहापोह और विचार-विमर्श के अनन्तर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय इसमें किये गये। तदनुसार स्थविरवाद के अतिरिक्त जो सतरह अन्य सम्प्रदाय थे उन्हें मिथ्यावाको घोषित किया गया। थेरवादी या विभज्यवादी सम्प्रदाय को बौद्ध धर्म का सच्चा प्रतिनिधि माना गया । बुद्ध-वचनों का अन्तिम रूप से स्वरूप-निश्चय किया गया। मोग्गलिपुत्त तिस्स ने कथावत्थु नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें सतरह सम्प्रदायों का खण्डन या निराकरण किया गया है, जिन्हें इस संगीति के फल-स्वरुप मिथ्यावादी वोषित किया गया था । कथावत्यु को अभिधम्मपिटक में स्थान दिया गया। अभिधम्म : परम्परा कथावत्यु का अभिधम्मपिटक में समावेश करा दिये जाने से यह शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि स्वरूप-गठन में लम्बा समय लगा होगा। आचार्य बुद्धघोष और ह्वेनसांग ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि आर्य महाकाश्यप के सभापतित्व में सम्पन्न प्रथम संगीति में ही इसका विनय और धम्म के साथ संगान किया गया था। इसमें सूक्ष्म तात्विक या दार्शनिक विवेचन है। भगवान् बुद्ध का समय इस प्रकार का था, जब सदाचार, करुणा तथा धर्म के सर्वजनगम्य सिद्धान्तों के प्रसार की आवश्यकता थी। इससे व्यापक लोक-कल्याण सम्भावित था । बौद्ध परम्परा में दार्शनिक विकास का युग आगे चल कर आता है। इसलिए ऐसा मानना अधिक संगत जान पड़ता है कि अंशतः अभिधम्म को विषय-वस्तु प्रथम संगीति में चचित हुई होगी और विनय तथा धम्म के साथ उसका भी सम्पूर्ण न सही, कुछ स्वरूप तो अवश्य अस्तित्व में आया होगा। उसके संघद्धन, संयोजन आदि का क्रम भी चालू रहा होगा। कथावत्य का उसमें समाविष्ट किया जाना ऐसे अनुमान के लिए आधार दे देता है। तृतीय संगीति का एक महत्वपूर्ण फलित तृतीय संगीति में एक महत्वपूर्ण निर्णय यह किया गया कि जन-जन के कल्याण के हेतु बौद्ध भिक्ष धर्म-सन्देश का प्रसार करने के लिए दूर-दूर के प्रान्तों और देशों में भेजे जाए। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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