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________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा और पिटक -वाङमय [ १ee तृतीय संगीति का आयोजन किया गया । अठारह सम्प्रदायों में थेरवादी ( स्थविरवादी ) या विभज्यवादी मुख्य ( सम्प्रदाय ) था । बौद्ध धर्म का वास्तविक प्रतिनिधि वही सम्प्रदाय है, ऐसा उसका दावा था । तृतीय संगीति का अन्तिम निर्णय भी उसी के पक्ष में रहा अर्थात् वही बौद्ध धर्म का वास्तविक प्रतिनिधि घोषित किया गया । थे या स्थविर का शब्दार्थ वृद्ध होता है । वृद्ध केवल अवस्था के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है; ज्ञान, तत्व-दर्शन और आचार - ज्येष्ठता के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है । बुद्ध के प्रथम शिष्यों को स्थविर शब्द से अभिहित किया गया है । भगवान् बुद्ध के मन्तव्यों के सम्बन्ध में उन्हीं का मत प्रामाणिक माना जाता है । स्थविर भिक्षुओं की विभज्यवाद में आस्था थी; अतः वे विभज्यवादी भी कहलाते थे । विभज्यवाद से तात्पर्य उस दर्शन से है, जो प्रत्येक पदार्थ का विभाजन करा अर्थात् उसके संदेश को सत् और असंदश को असत् बतला कर वस्तु- सत्य का निरूपण करे । विशेष गहराई में जाए, तो विभज्यवाद का एक सूक्ष्म तात्विक अर्थ भी है । इसके अनुसार समस्त मानसिक और भौतिक अवस्थाओं का स्कन्ध, आयतन और धातु आदि में विभाजन करा विश्लेषण किया जाता है । दीपवंस, महावंस और समन्तपासादिका में इस संगीति का उल्लेख प्राप्त होता है । महायानी बौद्ध साहित्य में इस संगीति का उल्लेख नहीं है और न ह्वेनत्सांग ने ही इसके विषय में कुछ विवरण दिया है । अशोक के किसी भी शिलालेख में इस संगीति की चर्चा नहीं है । ऐसी स्थिति में मिनयेफ, क्रीथ, मैक्स वेलेसर, बार्थ, फ्रैंक तथा सिल्वालेवी जैसे प्रसिद्ध विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता में शंका की है, जबकि प्रो० रायस डेविड्स, श्रीमती रायस डेविड्स, विष्टरनित्ज एवं गायगर आदि विद्वानों ने इस परिषद् की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता स्वीकार की है । अनुल्लेख का कारण अशोक के समय तक बौद्ध धर्म में अठारह सम्प्रदाय इतिहास में आ चुके थे । सम्भव है, अन्य सम्प्रदायों के अनुयायियों ने इस संगीति को केवल स्थविरवादी या विभज्यवादी सम्प्रदाय की संगीति मानकर इसे समस्त बौद्धों की संगीति नहीं माना हो; इसलिए इसका उल्लेख न किया हो । सम्राट अशोक की विद्यमानता में यह संगीति हुई और अशोक द्वारा कहीं भी इसका उल्लेख न कराया जाना भी आश्चर्यजनक सा लगता है । पर, यहां यह भी स्मर्तव्य है कि स्वयं सम्राट अशोक का लगाव स्थविरवाद से था । अशोक नहीं चाहता होगा कि उसके समर्थन को महत्व मिले । वह अपने को उस संगीति से सर्वथा निर्लिप्त रखना चाहता होगा, ताकि उसके द्वारा ( संगीत ) जो निर्णय हो, वह राज प्रभावित न माना जाए | अशोक बौद्ध धर्म का सर्वसम्मत यथार्थ स्वरूप उद्घोषित करवाना चाहता Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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