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भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय
। २०१ इसके लिए कार्यक्रम निर्धारित किया गया। दीपवंस, महावस और समन्तपासादिका में उन भिक्षुओं की नामावली का उल्लेख है, जिन्हें पृथक्-पृथक् स्थानों में जाकर धर्म-प्रसार करने का कार्य सौंपा गया था । त्रिपिटक का लेखन ___ सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए जो कार्य किया, उसको अप्रतिम सेवाए कीं, वे सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेंगी। सम्राट को अपने इस कार्य से बड़ा परितोष मिला । कहा जाता है, सम्राट ने एक बार महास्थविर तिस्स मोग्गलिपुत्त से कहा कि उसने बौद्धधर्म के लिए जो कुछ किया है, वह पर्याप्त है न ? महास्थविर बोले-"सम्राट् तुमने धर्म के लिए, धर्म-संघ के लिए बहुत कुछ किया, जो स्तुत्य है। परा, एक बहुत बड़े महत्व का कार्य अभी अपशिष्ट है, जिसे तुम नहीं कर सके हो।"
सम्राट ने पूछा-"भन्ते ! कृपया बतलाए, वह कौन-सा कार्य है, जिसे पूरा कर मैं परितोष का अनुभव कर सकू।"
महास्थविर ने कहा-"राज-परिवार का कम-से-कम एक सदस्य धर्म-संघ ( भिक्षु-संघ ) में प्रवजित होना चाहिए।"
सम्राट ने श्रद्धा से मस्तक झुका लिया और कहा-“भन्ते ! एक नहीं, मैं राज-परिवार के दो सदस्य धर्म-संघ को भेज दूंगा-एक पुत्र और एक पुत्री।" तदनुसार सम्राट अशोक का एक पुत्र और एक कन्या बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणी के रूप में दीक्षित हो गये, जो इतिहास में महेन्द्र और संघमित्रा के नाम से
देश-देशान्तर में तथागत के धर्म-सम्देश के प्रसार के निर्णय के अन्तर्गत महेन्द्र और संघमित्रा को लंका भेजा गया। राजकुकार भिक्षु और राजकुमारी भिक्षुणी अपने साथी भिक्षु-भिक्षुणियों के साथ अत्यन्त उत्साह एवं उल्लासपूर्वक तथागत का पावन सन्देश लिये लंका पहुंचे। तृतीय संगीति में अन्तिम रूप से स्वीकृत त्रिपिटक वे अपने साथ लेते गये अर्थात् त्रिपिटक का वे सांगोपांग अध्ययन किये हुए थे, वह उनकी स्मृति में था। तब लंका का राजा देवानंपिय तिस्स था। तथागत के धर्म-सन्देश-वाहक भारतीय भिक्षुओं का उसने हार्दिक स्वागत किया। स्वागत-सत्कार ही नहीं, उसने स्वय तथागत के सन्देश को अंगोकार किया। लंका के अनुराधापुर नगर में महाविहार की स्थापना हुई और वहां त्रिपिटक के अध्ययन का व्यवस्थित क्रम प्रारम्भ किया गया। शताब्दियों तक वह चालू रहा, पर, मौखिक रूप में ।
लंका के गाजा पट्टगामणि अभय ( समय ई० पूर्व २६-१७) के शासन-काल में लंका
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