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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ में चतुर्थ धर्म-संगीति का आयोजन हुआ। उसमें त्रिपिटक के परिशीलन और संगान के अनन्तर ऐसा निर्णय किया गया कि उसे लेख-बद्ध किया जाए । तदनुसार त्रिपिटक का ताड़पत्रों पर लेखन हुआ। यह वही त्रिपिटक था, जिसे राजकुमार ( भिक्षु ) महेन्द्र और राजकुमारी (भिक्षुणो) संघमित्रा तथा उनके साथी भारत से अपने साथ लंका ले गये थे। भिक्षु महेन्द्र के लंका-गमन और लंका-नरेश वट्टगामणि अभय के समय त्रिपिटक के लेख-बद्ध किये जाने के मध्य लंका में दो और संनीतियां हुई थीं, पर, उनका विशेष महत्व नहीं समझा जाता; क्योंकि उनमें त्रिपिटक के स्वरूप के सन्दर्भ में कोई विशेष चर्चा नहीं हुई। भिक्षु महेन्द्र जिस रूप में त्रिपिटक को ले गये थे, लगभग उसी रूप में वहां चलते रहे थे; अत: मध्यवर्ती दो संगीतियां त्रिपिटक की बावृत्ति-मात्र कही जा सकती हैं। यही कारण है कि प्रमुख संगीतियों में उनकी गणना नहीं की जाती। पहली संगीति देवान पिय तिस्स (२४७-२०७ ई. पूर्व) के समय में सम्पन्न हुई, जिसने भिक्षु महेन्द्र और संघमित्रा के नेतृत्व में लंका आई हुई भिक्षु-मण्डली का हार्दिक स्वागत किया था और स्वयं बौद्ध उपासक बन गया था। दूसरो संगीति राजा दुट्ठगामणि के शासन काल में हुई। दुट्ठगामणि का समय १०१-७७ ई० पूर्व माना जाता है । लंका में त्रिपिटक के लेख-बद्ध किये जाने पर उसका एक अपरिवत्यं च स्थायी स्वरूप निर्धारित हो गया। वहीं आज प्रामाणिक रूप में मान्य है।
आधुनिक कालीन संगोलियां
सगीतियों का आयोजन जिस अभिप्राय अथवा उद्देश्य से होता रहा, त्रिपिटक के लेखबद्ध हो जाने के पश्चात् वैसी अपेक्षाएं नहीं रहीं। स्मृतिगत पाठों का मिलान, संगान आदि का कार्य लेख-बद्धता के साथ परिसमाप्त हो जाता है । फिर भी त्रिपिटक के सम्पादन, पाठसंशोधन आदि को दृष्टि से कुछ कार्य अवशिष्ट रह जाता है, जो उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में सम्पन्न हुआ। इसके लिए विद्वान् भिक्षुओं को जो सभाए या गोष्ठियां हुई, उन्हें भी ऐतिहासिक परम्परा को कड़ियों के साथ जोड़ने के लिए संगीतियां कहा जाता है। इस प्रकार की दो संगीतियां हुई और दोनों ही ब्रह्मदेश में हुई। ब्रह्मदेश का भी सिंहल की तरह थेरवादी बौद्ध देशों में महत्वपूर्ण स्थान है। पहली संगीति ब्रह्मदेश के मांडले नगर में हुई, जिसे सजा मिण्डन का संरक्षण प्राप्त था। इसमें पालि-त्रिपिटक का सम्पादन किया गया। स्थायित्व की दृष्टि से विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक को संगमर्मर की शिला-पट्टिकामों पर उत्कीर्ण कराया गया। तीनों पिटक क्रमशः १११, ४१० और २०८ पट्टिकाओं पर बर्मी लिपि में उत्कीर्ण हुए।
सन् १९५४-५६ में इसके पश्चात् ब्रह्मदेश के रंगून नगस में अन्तिम रूप से त्रिपिटक का
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