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भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं
यथो (यथा ) उपदेशाय ग्लपयन्तः ( अध्यापन में असमर्थ ) शिशिक्ष राज्येन ( राज्य पर आरुढ़ किया ) बिल्म ( विविधता ) नघण्टुक ( गौण ) अनिर्वाह ( ब्रह्मचर्य )
कुछ पारिभाषिक शब्द, जो उत्तरकालीन साहित्य में नहीं मिलते :
faęfe F977 (weak terminations ) उपजन (Prepositions ) उपबन्ध ( भागम ) नामकरण ( संज्ञाओं से आने वाले प्रत्यय )
निरुक्तकार यस्क के समय से संस्कृत के स्वरूप में शैली की दृष्टि से परिवर्तन दिखाई देता है। उसे दो प्रकार की शैलियों के रूप में आंका जा सकता है-क्रिया-प्रधान शैली और नाम-प्रधान शैली।
क्रिया-प्रधान शैली
नाम ओर क्रिया पाक्य के मुख्य भाग होते हैं। किसी भी व्यक्ति का दिन भर का अस्तित्व क्रियामूलक होता है। हर समय वह किसी-न-किसी प्रकार की क्रिया के सम्पादन में संलग्न रहता है। जब व्यक्ति की क्रियाशीलता अभिव्यक्ति का रूप लेती है, तो वाक्य में स्वतन्त्र और विशिष्टार्थक क्रियाओं का प्रयोग होता है। वहां अर्थ-प्रतिपादन मुख्य होता है; अतः वाक्य छोटे-छोटे होते हैं, सुबोध्य हते हैं, ताकि सीधे रूप में अर्थ निरूपित हो सके । इसे क्रिया-प्रधान शैली कहा जा सकता है। यास्क और पाणिनि के समय संस्कृत-साहित्य में इसी प्रकार की शैली का प्रचलन था। उस समय रचित साहित्य में वाक्य छोटे-छोटे हैं, क्रियापदों की बहुलता है, रचना में सरलता है ।
नाम-प्रधान शैली ___क्रिया के द्वारा अभिबोधित भाष की व्यंजना को फोर जब अधिक झुकाव होता है, तो वाक्य में क्रिया-पदों का प्रयोग आवश्यक होता है, पर जब तत्कर्तृक व्यक्ति का वैशिष्ट्य मुख्य और क्रिया की प्रगति गौण हो जाती है, तब क्रिया-पदों का पूर्वोक्त प्रकार का प्रयोग अवरुद्ध हो जाता है, कम हो जाता है अथवा क्रियाओं का प्रयोग विशेषणों के रूप में होने लगता है।
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