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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ५४९ "एक (महावीर) की परम्परा में निर्वस्त्रता स्वीकृत है तथा दूसरे के यहां सवस्त्रता । दोनों ओर के भ्रमरण एक ही कार्य या उद्देश्य को साधने में संप्रवृत्त हैं, फिर यह भेद क्यों ? श्रमण केशी और गौतम ने जब अपने शिष्यों के इन तर्क-वितर्कों को जाना तो दोनों ने परस्पर मिलने का निश्चय किया । 21 "गौतम विनय परम्परा के विज्ञ थे । श्रमरण केशी ज्येष्ठ ( तेबीसवें तीर्थंकर भगवान् शिष्य - समुदाय सहित देखा तो उनके गौरव पर्व की परम्परा के) कुल के हैं, यह देखते हुए गौतम अपने तिन्दुक उद्यान में श्रायै । श्रमण केशीकुमार ने जब गौतम को आते के अनुरूप बहुमान एवं भक्तिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया । उस उद्यान में जो प्रासुक पलाल, तृण, कुश आदि थे, आये गौतम के बैठने के लिए अविलम्ब प्रास्तृत कर दिये ।"* "महा यशस्वी श्रमण केशीकुमार तथा गौतम - दोनों बैठे हुए इस प्रकार शोभित थे, मानो चन्द्र और सूर्य हों । अनेक अन्य मतावलम्बी, अनेक कौतुक - दर्शनार्थी - तमाशबीन, अनेक अज्ञानी तथा हजारों नागरिक एकत्र हो गए। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं चाउज्जामोय जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ बद्धमारोण, पासेण य महामुनी ॥ १. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ॥ अह ते तत्थ सीसाणं, विन्नाय पवितक्कियं । समागमे कयमई, उभओ केसिगोयमा ॥ २. गोयमे पडिवन्न, सीससंघसमाजले । जे कुलमवेक्खतो, तिदुयं वणमागओ ॥ 4 केसीकुमार समणे, गोयम दिमागयं । पडिरूवं पडिवत्ति, सम्भं संपडिवज्जई ॥ पलाल फासूयं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य । गोमस्त निसिज्जाए, खिष्पं संपणामए ॥ Jain Education International 2010_05 - उत्तराध्ययन सूत्र, २३.११-१२ For Private & Personal Use Only —वही, २३, १३-१४ -वही, २३.१५-१७ www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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