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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय
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"एक (महावीर) की परम्परा में निर्वस्त्रता स्वीकृत है तथा दूसरे के यहां सवस्त्रता । दोनों ओर के भ्रमरण एक ही कार्य या उद्देश्य को साधने में संप्रवृत्त हैं, फिर यह भेद क्यों ? श्रमण केशी और गौतम ने जब अपने शिष्यों के इन तर्क-वितर्कों को जाना तो दोनों ने परस्पर मिलने का निश्चय किया । 21
"गौतम विनय परम्परा के विज्ञ थे । श्रमरण केशी ज्येष्ठ ( तेबीसवें तीर्थंकर भगवान्
शिष्य - समुदाय सहित
देखा तो उनके गौरव
पर्व की परम्परा के) कुल के हैं, यह देखते हुए गौतम अपने तिन्दुक उद्यान में श्रायै । श्रमण केशीकुमार ने जब गौतम को आते के अनुरूप बहुमान एवं भक्तिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया । उस उद्यान में जो प्रासुक पलाल, तृण, कुश आदि थे, आये गौतम के बैठने के लिए अविलम्ब प्रास्तृत कर दिये ।"*
"महा यशस्वी श्रमण केशीकुमार तथा गौतम - दोनों बैठे हुए इस प्रकार शोभित थे, मानो चन्द्र और सूर्य हों । अनेक अन्य मतावलम्बी, अनेक कौतुक - दर्शनार्थी - तमाशबीन, अनेक अज्ञानी तथा हजारों नागरिक एकत्र हो गए। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं
चाउज्जामोय जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ बद्धमारोण, पासेण य महामुनी ॥
१. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ॥ अह ते तत्थ सीसाणं, विन्नाय पवितक्कियं । समागमे कयमई, उभओ केसिगोयमा ॥
२. गोयमे पडिवन्न,
सीससंघसमाजले ।
जे कुलमवेक्खतो, तिदुयं वणमागओ ॥
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केसीकुमार समणे, गोयम दिमागयं । पडिरूवं पडिवत्ति, सम्भं संपडिवज्जई ॥ पलाल फासूयं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य । गोमस्त निसिज्जाए, खिष्पं संपणामए ॥
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- उत्तराध्ययन सूत्र, २३.११-१२
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—वही, २३, १३-१४
-वही, २३.१५-१७
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