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आगम और त्रियटिक : एक अनुशोलन [खण्ड : ___दूसरी संख्या पर स्थित धम्मपद निःसन्देह बौद्ध वाङ्मय में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। संसार की प्रायः समस्त मुख्य भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। इसमें ४२३ गाथाए हैं, जो भगवान् बुद्ध द्वारा अपने जीवन-काल में उपदिष्ट हुई थीं। इन गाथाओं में धर्म, सदाचार, नीति और प्रशस्त जीवन के सम्बन्ध में बड़ी मनोज्ञ शिक्षाए हैं। यह छब्बीस वर्गों में विभक्त है। प्रत्येक वर्ग का नामकरण उसमें वर्णित विषय और दृष्टान्तों के अनुरूप है। इसकी रचना जहां नैतिक दृष्टि से अत्यन्त गम्भीर है, वहां शब्दावली प्रसादपूर्ण और हृदयस्पर्शी है। धम्मपद को यदि बौद्धों की गीता कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। लंका में बोद्धों में आज भी यह परम्परा प्रवृत्त है कि बिना धम्मपद का पारायण किये किसी भिक्षु की उपसम्पदा नहीं होती । बर्मा, स्याम, कम्बोडिया और लाओस में भी प्रायः प्रत्येक भिक्षु के लिए यह आवश्यक माना गया है कि उसे धम्मपद कण्ठाग्र हो । __ धम्मपद का शब्दार्थ है-धर्म सम्बन्धी पद। पद शब्द से यहां गाथा, वाक्य या पंक्ति का अभिप्राय है। बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म से सम्बद्ध गाथाओं, पदों या वाक्यों को भिक्षु-भिक्षुणियां उनके जीवन-काल में कण्ठस्थ करने लगे थे, ऐसा बौद्ध-साहित्य के परिशीलन से विदित होता है। धम्मपद बुद्ध के जीवन-काल में सकलित एक ऐसा संग्रह प्रतीत होता है, जिसे प्रत्येक भिक्षु कण्ठस्थ करता रहा हो। संयुक्त निकाय में भी धम्मपद शब्द का प्रयोग है, जो सम्भवतः इसो अर्थ का द्योतक है। स्वयं धम्मपद को दो गाथाओं में धर्म सम्बन्धी पदों के अर्थ में यह शब्द आया है। मान्यता और प्रतिष्ठा इसी से प्रकट होती है कि 'निस' और 'कथावत्यु' जैसे ग्रन्थों में धम्मपद को कई गाथाए उद्घ त की गयी हैं । ईसवी सन् के आरम्भ के आस-पास रचित मिलिन्दपञ्हो (मिलिन्द-प्रश्न) ग्रन्थ में 'भासित पेतं भगवता देवातिदेवेन धम्मपद' इन शब्दों के साथ दो गाथाएं उद्धत को गयी हैं । विनय-पिटक ___ बौद्ध वाङ्मय में विनय नियम या आचार - नियम के अर्थ में एक प्रकार से बौद्ध भिक्षु-संघ का संविधान है। भिक्षु-जीवन में आचार का महत्वपूर्ण स्थान था। तथागत ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों के द्वारा पालन किये जाने योग्य नियमों का समय-समय पर जो उपदेश किया, उस सन्दर्म में अपराधों, दोषों, प्रायश्चित्तों आदि का भी वर्णन किया, उनका इसमें संकलन है । वस्तुतः यह आचार-प्रधान ग्रन्थ है । तत्कालीन भारतीय समाज और जीधन का दिग्दर्शन कराने की दृष्टि से इसकी बड़ी उपयोगिता है। यद्यपि यह अपने आप में एक परिपूर्ण ग्रन्थ है, किन्तु, विनय-वस्तु की दृष्टि से सुत-विभंग, खंधक और परिवार; इन तीन १. मिलिन्द-पहो, पृ० १७२, ३९९, बम्बई विश्वविद्यालय संस्करण २. वही, गापा ३२, ३२७
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