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________________ भाषा और साहित्य विश्व भाषा-प्रवाह [ ७१ स्केंडेनेविया सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इन विद्वानों की तं.नों श्रेणियों का आर्यों के मूल स्थान की स्थापना में अपनी-अपनी भाषाओं के क्षेत्र अर्थात् अपने-अपने देशों की ओर चिन्तन केन्द्रित हुआ। इसमें कुछ-न-कुछ मम व की झलक आती ही है। ___भारोपीय-परिवार की भाषाओं का पूर्व और पश्चिम में विस्तार, विभिन्न स्थितियां, ध्वनियों का तारतम्य, भौगोलिकता तथा भाषाओं के उत्तरवर्ती विकास की विविध परिणतियां आदि अनेक पक्ष इस सन्दर्भ में चर्चित हुए। निष्कर्षतः कतिपय धरिष्ठ भाषा-वैज्ञानिकों का मत ब्रान्देन्श्ताइन के पक्ष में रहा । भारतवर्ष के महान् भाषा-विज्ञानवेत्ता डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने भो ब्रान्देश्ताइन के मत का समर्थन किया। तदनुसार यूराल पर्वतमाला के दक्षिण का प्रदेश आर्यों का आदि स्थान परिकल्पित किया गया। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा० बटकृष्ण घोष आदि कुछ विद्वान् ब्रान्देन्श्ताइन के मत के बहुत से पहलू स्वीकार नहीं करते, परन्तु, अधिकांश विद्वानों का झुकाव इसी ओर है। मूल स्थान से अभियान यूराल पर्वत के दक्षिणी भू-भाग को आर्यो या विरोस् लोगों का मूल स्थान मान कर अब हम चिन्तन करें। ब्रान्देन्श्ताइन का विचार है कि शब्दों के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये ( आयं या विरोस् ) किसी एक ही स्थान में अविभक्त रूप में निवास करते थे। समय बीतने पर उनमें से कुछ लोग दक्षिण-पूर्व की ओर चल पड़े, जिन्हें हम भारत-ईरानी लोगों के पूर्व-पुरुष कह सकते हैं। मूल स्थान से वे सीधे ईरान पहुंचे या बीच में कहीं रुके, निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सन्दर्भ में भारत के प्रमुख भाषा-वैज्ञानिक डा० बाबूराम सक्सेना के विचार मननीय है : “इतिहास में आर्य जाति का आविभीष अन्यों ( मिस्री, सुभेरी, अक्कदी, असीरी, चीनी आदि ) की अपेक्षा अर्वाचीन है। अनुमान है कि मादिम आर्यों का प्रथम सम्पर्क उत्तरी मेसोपोटेमिया की तत्कालीन सभ्य जातियों से, ईसा से पूर्व तेईसवीं या बाईसवीं सदी में हुमा, ई० पू० २००० वर्ष के आसपास उनकी स्थिति मेसोपोटेमिया में पाई जाती है। प्रायः ई० पू० १४०० के बोगाजकोई लेख में आर्यों का प्रथम सर्वथा स्पष्ट उल्लेख है।"] इससे यह भी सम्भव प्रतीत होता है कि आर्यों का पहला मुकाम मेसोपोटेमिया में हुआ हो । दो भागों में विभाजन अभियान का पहला परिणाम यह हुआ कि अपने मूलस्थान से विरोस् या पायं सहज ही दो भागों में विभक्त हो जाते हैं। एक वे, जो दक्षिण-पूर्व की ओर आगे बढ़े तथा दूसरे १. सामान्य भाषा विज्ञान, पृ० ३२५ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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