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________________ ६० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ वस्तुस्थिति यह है कि नये स्थान पर बसने वाले लोग नये शब्द और ध्वनियां अपनी भाषा में अवश्य ग्रहण कर लेते हैं, पर, अपने प्राक्तन भाषा तत्व को छोड़ नहीं सकते थे; अतः मूल भाषा के साथ नये-नये आवासों में बनने वाली भाषाओं का अन्त:- सादृश्य बना रहता है । पुनः आदि स्थान पर दृष्टि निक्षेप किया जाए, जहां से पहला समुदाय चला था । सम्भव है, उसके चले जाने के कुछ समय पश्चात् उसी स्थान से एक और समुदाय पहले से विपरीत दिशा की ओर रवाना हुआ हो । यह दूसरा समुदाय भी, पहले की तरह आगे बढ़ता गया हो । उस समुदाय के लोग जहां-जहां बसते गये, नई-नई ( मिली-जुली ) भाषाएं अस्तित्व में आती गयीं । गहराई में उतरने से ज्ञात होता है, एक केन्द्र से भाषाओं की दो धाराएं विकास पाती गयीं। दोनों के विकास के स्थान भिन्न-भिन्न रहे । स्थितियां भिन्न थीं, लोग भिन्न थे और उन-उन स्थानों की भाषाएं भी भिन्न थीं, जिनके मेल-जोल से ये नई उभरती और पनपती भाषाएं अस्तित्व में आ सकीं। इसलिए यह स्वाभाविक था कि दो विपरीत दिशाओं की rare भूमियों में सृष्टि और विकसित भाषाओं के कलेवर की भिन्नता में वरतमता हो 1 पर, यह सब होते हुए भी उन दोनों दिशाओं की भाषाओं को सर्वथा विसदृश नहीं माना जा सकता । उन सबका प्रारम्भिक स्रोत एक होने से उनमें ध्वनि, शब्द- गठन, रूप निर्माण तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से एक सादृश विद्यमान रहता है, जिसकी व्याप्ति भाषा के बहिर्दह में अपेक्षाकृत कम दृष्टिगोचर होती है, पर उसके अन्तर्दह ( Spirit ) में वह निश्चय ही बनी रहती है । किसी समय जो मूल (आदि ) भाषा रही थी, दो विपरीत दिशाओं में प्रसृत भाषांसमूह का आदि उद्गम स्रोत थी, उसके इतस्ततः, दूर-दूर तक फैला हुआ, उसकी शाखा, उपशाखा प्रशाखा आदि के रूप में विद्यमान भाषा - समुदाय एक भाषा परिवार कहा जाता है, जिसके प्रसृत और विस्तृत होने में शताब्दियां ही नहीं, सहस्राब्दियों तक लग जाती हैं । यह बड़े महत्व की बात हैं कि किसी भाषा-परिवार का ऐतिहासिक दृष्टि से समोक्षात्मक रूपे में अध्ययन करने पर सहस्राब्दियों की लम्बी अवधि के मध्य सर्जित, विकसित और विस्तृत मानव संस्कृति के कितने ही पर्त उद्घाटित होते हैं वह क्यों-ज्यों जागृत जौर विकसित होता जाता है, उसकी लेती जाती है, जिन्हें भाषा अभिव्यक्ति प्रदान करती है । वर्तनों तथा विकास-स्तरों में से गुजरती हुई सुप्रतिष्ठ होती है, मानव के अध्यवसाय, पौरुष एवं उत्क्रान्ति की ओर बढ़ते चरणों के इतिवृत्ति का सबसे अधिक प्रामाणिक साक्ष्य लिये रहती है। पूर्व संकेतित भाषा-परिवारों के सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे फलित प्रस्फुटित हो । भाषा का प्रयोक्ता मानव है । विचार- चेतना नये नये आयाम इसलिए भाषा जो अनेक परि Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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